नागार्जुन के उपन्यासों में सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष | Nagarjun Ke Upnyason Men Samajik Aur Rajnitik Sangharsh
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
154
श्रेणी :
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(Click to expand)जा रही है। इसकी सपेट में देश और उसको अखण्डता फंस चुकी है। ऐसी स्थिति में
सागार्जुन के उपन्यासों में कही भी इस विप-वेल का संदर्भ न होना अखरता है। जिस
तरह से उन्होंने अन्य राष्ट्रीय और ज्वलंत समस्याओं, उनकी विदूपताअओं को जन-जीवन के
सामने उजागर कर उनकी वखिया उधेड़ी है उनके निराकरण को दिशा-निर्देश किया है
ठीक उसी तरह से इस समस्या का भी दे निदान प्रस्तुत करते तो और ही उत्तम होता ।
यद्यपि उनके यहां हिंदू और मुसलमान, स्व और अवर्ण सभी पात्र है परन्तु वे साप्रदायिक
देप से ग्रसित नही हैं। परन्तु आज के इस चुनावी चक्रब्युह में सांप्रदायिकता जाति-
बाद, क्षेत्रवाद जिसके मुख्य द्वार है नागार्जुन इन पर भी अपने व्यंग्य-वाणों की बौछार
कर ध्वस्त करते तो अच्छा होता ।
दूसरे, नागार्जुन किसान समस्या को केवल शभ्रूमि से ही जोड़कर देखते हैं उनके
किसानों का पूरा-पूरा संपर्ष केवल जमीन प्राप्त करने तक जुड़ा हुआ है। आधुनिक
कृषि विकास और कृषि के औद्योगीकरण पर बाबा मौन हैं । कृषि का पंतश्रीकरण जिस ढंग
से हमे उनके समानधर्मा फणीश्वरनाथ रेणु में मिलता है उस ढंग से नागार्जुन में नहीं ।
वैज्ञानिक उपकरणी, सिंचाई के साधनों, उन्नतशील बीजों आदि का प्रयोग हमें 'मैला
आंचल' में मिला है लेकिन नागार्जुन में उसके दर्शन नहीं होते ।
एक भर वात जो कि नागार्जुन के उपन्यासों से अछूती रह गई है वह है औद्योगिक
मजदूरों की समस्या । यद्यपि नागार्जुन कविता में इन विपयों पर बरावर लिखते रहे है
लेकिन उनके उपन्यास साहित्य में यह चर्चा एक भाव के रूप मे दृष्टिगोचर होती है।
पूजीपति, कारखाने दार, मिल-मालिक आदि शोपकों के खूनी जवड़ों में फसे हुए निरीह
मजदूरों के घुटे हुए दम की आवाज उपन्यास साहित्य में नही है। मात्र 'जमनिया का
वाया उपन्यास में जेल के कं दियो की चर्चा भर में ये मजदूर शामिल हुए है अन्यत्र नही ।
नागार्जुन का उपन्यासों के लेखन मे पूरा ध्यान समाज ओर उसकी विसंगतियों तथा
राजनीति ओर उसकी भूमिका पर रहा है । हां, उनकी कविता में इन तमाम संदर्भों
की व्याख्या प्रस्तुत है ।
अत हम देखते हैं कि नागार्जुन के उपन्यासो मे ग्रामीण जीवन के तमाम सन्दर्भ
राष्ट्रीय चिन्तनधारा से जुड़े रहे हैं । उनकी सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने राष्ट्र और
समाज की विसंगतियों का नवीन हत प्रस्तुत किया है। उनके उपन्यास मनोरंजन और
समय काटने के लिए नहीं अपितु सोचने-समझने और कुछ कर-गुजरने के लिए हैं । वे
अपने पुष्ट विचारों के अकेले लेखक हैं जिन्होंने वर्गविह्दीन समाज की बुनियाद रखी है जो
कि समाज और राष्ट्र की प्रगति में महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने साहित्यकार के दायिदव का
पूर्णरूपेण निर्वाह किया है ।
इन्हीं रचना-सदर्भों का प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम अध्याय में बाबा नागाजुंन के
उपन्यासों की पु्व-पी ठिका के अन्तगंत ऐसिंहासिक अध्ययन है । वयोकि आलोचना के क्षेत्र
में इन ग्रामीण जीवन सम्बन्धी उपन्यासों को क्षेत्रवाद और अंचल विशेष को परिधि से
सीमित कर उनके मूल्याकन की परिपाटी बराबर चली भा रही है। परन्तु वस्तुस्थिति
इससे नितात भिन्न है । इस अध्याय में इस वात को स्पप्ट किया गया है कि ये उपन्यास न
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