रेवा | Rewa

Rewa by इन्द्रबहादुर खरे - Indrabahadur khare

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गे . पक दी डे भ माखनलाल चतुवदी वहीं अनुराधापुर ! किसका लौंडा है ? तेली का लड़का हूँ । क्या नाम है. तेरा ? भोला । बाप का नाम ? बच्चू । तेरा बाप क्या करता है ? दूल्हे के बाप ने बीच ही में कहा, इसके मां बाप कोई नहीं है सरकार ! गरीब है बेचारा । सिपाही ने फिर पुछा-- तेरी पाग किस रंगरेज ने रंगी है बे ? रमजान बब्बा ने । सिपाही मे पर ये याग उतारों और उकफ सा रंग, . एक सी बनक, एक सी सुन्दरता देख कर भी यह गरीब की पाग थी, जिसे सिर से सदा के लिये उतारते हुए भी सिपाही के हाथ में झिमक की जगह न थी ! सिपाही नें घूर कर लड़के को इस तरह देखा, मानों खा जाथगा । भोडा सहस गधा । दोपहर होता आ रहा था । मजहूर, खेतों में गेहूँ . काटने में जुटे हुए थे । छोटे बच्चे पशु-धन को पानी पिलाने नाले पर ले जा रहे थे । आमों के मौर महक भी रहे थे, और झर भी रहे थे । सड़क की धूल उड़कर, राहगीरों के मुंह, उनकी आँखों और आंखों के पलकों के बालों तक को मटमेला किये हुए थी । गांव की मजदूरिनें, गेहूँ की पुले बांधते हुए गा रही थीं-- “जी में एक. पहेली दूखी दुनिया आज हरी कल सुखी । और शास्त्रों को रटे हुए पण्डित जी गेहूँ के फूलों की भीख मांगते हुए, एक हम में सुलगी हुई चिलम और बगल में डंडा दबाये अपने ज्ञान को तुलसी की इस वाणी के द्वारा आंधाये चले जा रहे थे । श्शे




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