श्री योगसार पर प्रवचन भाग - 5 | Shri Yogasar Par Pravachan Bhag - 5

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ष्ड् उसी शरीर के परिमाण हो जाते हैं तथा जब बड़ा शरीर पाता है तब वे ही आत्म प्रदेश बिर्दत होकर उस बड़े. शरीर रूप हो जाते हैं । इसके सिचाय बह आत्मा उत्पाद व्यय घ्रौव्य स्वरूप है । सांख्य-मीमांसक भौर योग कहते हैं कि भात्मा स्वेथा नियय है । सचेथा नित्य होने के कारण उसमें उत्पाद-व्यय नहीं दो सकता परन्तु इन छोगों का यह कहना ठीक नहीं है। फ्योंकि एक आत्मा जो आज सुखी है वही कछ दुःखी दो जाता है तथा जो आज टुःखी दै वद्द कछ सुखी है । इस प्रकार आत्मा में उत्पाद और विनाश स्पष्ट रीति से प्रतीत होता रहता है। अतः आत्मा स्ंधा नित्य नहीं है किन्तु उत्पाद-व्यय श्रौव्य स्वरूप है । बौद्ध मत वाला मानता है कि आत्मा का स्वभाव ज्ञान रूप है तथा ज्ञान में सदा उत्पाद-बिनाश होता रहता है। कभी ज्ञान बढ़ता है कभी ज्ञान घटता है अतः सेथा नित्य नहीं दै किन्तु उत्पाद-व्यय स्वरूप है । बौद्ध म॒त्त बाला आत्मा को ध्रौव्य स्वरूप नहीं मानता परन्तु उसका यह मानना भी ठीक नहीं है--क्यों कि यदि आत्मा में श्रौव्यपना न माना जायगा तो में ब्रह्दी हूं जो बाठक अवस्था में ऐसा था और कुमार अचस्था में ऐसा था। यह जो प्रत्येक जीव को प्रत्यक्ष विज्ञान होता है सो नहीं होना चाहिये । यदि आत्मा को सबेधा चत्पाद-व्यय स्वरूप ही माना जायगा ध्रीव्य रूप न माना जायेगा तो फिर लेन-देन का व्यवहार व घरोददर रखने और लेने का व्यवहार कभी नहीं हो सकेगा परन्तु यह सब व्यवहार होते हैं भर में वही हूं। यह प्रत्य भिज्ञान सबको होता है । इससे स्पष्ट होता है कि आत्मा प्रौव्य स्वरूप है । इस प्रकार आत्मा का स्वरूप उत्पाद-घ्यय आर ध्रौव्य स्वरूप बतला कर आाचाये ने सांख्य-मीमांसक योग और बोद्ध का खण्डन कर दिया है । इसके सिचाय आत्मा अपने ज्ञानादि गुणों से सुशोभित होने के कारण ही उसके निज स्वरूप की प्राप्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति होती होै। यदि आत्मा को ज्ञानादिक शुण विशिष्ट न साना जायेगा तो फिर उसके निज स्वरूप की प्राप्ति व मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं हो सकती । ज्ञानावरणादिक कम आत्मा के ज्ञाचादिक शुणों को ढक छेते हैं--उन कर्सो' के नाश होने से थे ज्ञानादिक शुण प्रगट हो जाते हैं। इसी को निज स्वरूप अथवा मोक्ष की प्राप्ति कहते हैं । इससे सिद्ध होता हे कि आत्मा को ज्ञाना- दिक शुण विशिष्ट सानने से दी मोक्ष की प्राप्ति हो सकती हे अन्यथा कभी नहीं दो सकती |




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