मेरी हिमाक़त | Meri Himaqat

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Meri Himaqat by वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कलाकार से. ११ शैँका में जो श्रस्पष्टता दोतीजो वक्रता दीखती है, वददी तो कला की जान है। घड़े को मैं सीधा करदूँ; तो शंकाओं का निवारण हो जायेगा, अस्पष्टता खुल जायेंगी, वक्रता मिट जायेगी । स्पप्ता झ्ौर सरलता की सित्ति पर ठुम्हारी कला एक क्षण भी न टिक सकेगी । तुम्हारे लिए वह स्वागत की वस्ठु नद्दीं। तुम्दारी कला आवाद रहे, इसी- लिए मैं घड़े की आधी खोपड़ी पर अरंगुलि-ताइन किया करता हूँ । ऐसी कल्याणकारी प्रक्रिया को ठुम कला के लिए; घातक समझ बैठे दो--यदद कितने श्राश्चर्य की बात है ! सुना था कि पोषणु-क्रिया में कला का दशन होता है, पर मुझे तो उसका संपूर्ण दर्शन शोपण-क्रिया में हुआ | जाड़े के दिनों में घी तुम घड़े में से टेढी अंगुलियों से निकालते दो--सीधी अंगुलियों से तुमने कमी शोषण किया है ? सो चक्रता में ही कला का विकास है । समन्वय के इस युग में राजनीति झ्ौर कला के बीच कोई ऐसा भारी मेद नही रहा । रहा होगा कोई प्रागैतिदासिक युग, जब राज- नीति तो एक रास्ते जाती होगी, श्रौर कला दूसरे रास्ते । तब शायद कला उपयोगितावाद के दर्पण के सामने खड़ी होकर श्रपना सौदय निद्दारती होगी । तंत्र ठम्डारी कला का इृदय सरल या मुग्ध रहा दोगा--श्राधुनिक कलाविदों की भाषा मे “सड़ा” । श्ौर तब कला श्राभौड़ी-सी होगी, सलौनी नदी । जैंसे श्राघुनिक राजनीति में सीघे वात करना गुनाह है, वैसे ही कला में पेचीदा माग॑ से दटना वेढंगामन है । उपयोयिता से तुम्दारी ललित कलाशओं का सदा असहकार-सा रहता है । ठुम्हास प्रश्न है कि सिगरेट के धुँ का शूत्य झन्तरिक्ष




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