श्री जवाहर किरणावली भाग - २९ | Shri Jawahar Kirnawali Part -29 ( Shri Bhagwati Sutr Vyalhyan Bhag -3)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
288
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उत्पन्न होते हैं, मगर यहां उनका ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां देव योनि
के उन जीवों को ही लेना चाहिए जो वन में उत्पन्न होकर, वन में क्रीड़ा करते
हैं।
वाण वयन्तरों के स्थान का वर्णन करने के लिए भगवान् ने मनुष्यलोक
के वृक्षों के वनों का उदाहरण दिया है। यह आशंका की जा सकती है कि
मनुष्यलोक में महल आदि उत्तम स्थान बहुत से हैं, उनकी उपमा न देकर
सिर्फ वनों की उपमा क्यों दी हैं? वास्तव में वन की उपमा देने में प्रकृति
सम्बन्धी बहुत विचार गर्भित हैं ।
आजकल लोग प्रकृति से बहुत दूर हट गये हैं, इसलिए उन्हें कृत्रिम
वस्तु वहुत प्रिय लगती है। लेकिन जिसने प्रकृति का अभ्यास किया है, जिसने
प्रकत्ति के सौन्दर्य की अनुभूति की है, वही प्राकृतिक और कृत्रिम वस्तुओं का
भलीभांति अन्तर समझ सकता है। एक आदमी घाम से व्याकुल और थका
हुआ है । उसे एक ओर कलकल करता हुआ निर्सर और उसी के किनारे एक
सुन्दर सघन छायादार वृक्ष मिलता है और दूसरी ओर राजमहल, वह किसे
पसन्द फरेगा?
वृक्ष की छाया को!'
मल के लोभी को चाहे महल प्रिय लगे, लेकिन थके हुए निर्लॉभ
पशथिक को तो वृक्ष की छाया ही अधिक प्रिय लगेगी । थके हुए को वृक्ष की
गोद मे जो आनन्द प्राप्त होगा, वह महल की कैद में नहीं हो सकता |
चूक की छाया में आनन्द प्राप्त होने का एक कारण और भी है। मनुष्य
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९३ ऊन]
साइड वायु छोड़ता है और वृक्ष उसे ग्रहण करके उसके बदले
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