गांधीजी के सम्पर्क में | Gandhi Ji Ke Sampark Mein

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चन्द्रशंकर शुक्ल - Chandrashankar Shukl

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दर्शन - Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छोकपुरुष १७ अभि कि, किक, #फ, लव, अति” भाप नाराज करूँ ? निश्चित अवधि में ही सबको समझाना चाहिये । एक दिन सुबह में गांधीजी को नियम के विरुद्ध दो अधिक ख्रीसंस्थाओं में ले गया । कुछ सप्ताह पहले भी मैंने ऐसी ही हरकत की थी, पर उस वक्त उन्होंने कुछ कहा नहीं। पर आज तो उन्होंने मेरी खूब खबर ली; नाराज़ होकर या अपशब्द कह कर नहीं बल्कि कड़ी दृष्टि से, मुहूँ पर क्रोघ की सिलवर्ें लाकर आर एक * हुंकार * लेकर ही । मुझे तो लगा कि जेसे मझपर गाज गिरी हो ! अत्यन्त निकट रहते हुए भी यह मेरे लिए पहली घटना थी । मैं नियमविरुद्ध जाकर पछताया । पर कछ हो जानें के बाद क्या किया जा सकता है १ मेरा स्पष्ट दोष था और सजा भी ठीक ही मिली (६) पुज्य कस्तुरबा का, १९४४ की ९२ वीं फरवरी को आगाखाँ महल मैं, कारागार में, अवसान हो गया । भाई देवदास ने उनकी सब क्रियाएँ पूना में ही सम्पूर्ण कीं । उनकी अस्थियाँ प्रयाग ले जाते हुए बंबई उतरकर कुछ मित्रों से उनकी स्मृति के लिए फंड की बात की गई, सबां ने सहमति दी । फिर दिल्ली पहुँचने पर धनवानों के सम्मुख यह योजना पेंश की गई । आम सभा के सम्मुख पचहत्तर लाख की बड़ी रकम के लिए प्राथना की गई । सौभाग्य से गांधीजी भी उसी वष मई महीने में छूट गये; घन एकच्रित करने में जो जो कठिनाइयाँ थीं; वे इससे दूर हो गई । इस निधि का उपयोग ' ख्री और बच्चों” के लिए निश्चित किया गया था, किंतु बाद में वह उपयोग “गाँवों के स्री और बच्चों ” तक सीमित रह गया । लेकिन ७५ लाख के बदले ८० लाख के चेक गांधीजी के पास सेवायाम में उपस्थित हुए, और उन्होंने उसे स्वीकार किया । रकम की पूर्ति होगी या नहीं ऐसी आशंकाएँ नो दूर ही हो गंड; इतना ही नहीं बल्कि जब निधि बेद की गई तब कुल संख्या १ करोड़ २८ लाख थी । कई बार आदुर्श अपूर्ण रहते हैं, पर इस बारतो प्रभुकी कुपा स ड्योढ़े से भी अधिक मिले थे ।




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