पुण्य की जड़ हरी | Punya Ki Jad Hari

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Punya Ki Jad Hari by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पी सत्ती १६ लगी तर उसने साँप का रास्ता रोक लिया । साँप निडर होकर जल के प्रवाह में घुस तो गया, पर वहाँ उसकी ऐसी दुर्गति हुई कि हार मानकर उसे लौटना पड़ा । जब वह गुरु के पास पहुँचा तो गरु ने गस्ते में उसका भी काम तमाम कर दिया । झ्रबकी वार उसने निश्चय किया कि वह खुद ही जायगा । उसने सूत्त से भी वारीक सांप का रूप घारण किया और किसी प्रकार सेठ के लड़के के कमरे में घुस गया । लड़का ग्रौर बहू गहरी नींद में सोये हुए थे । लड़की की चोटी खाट से नीचे लटक रही थी । साँप उसीके सहारे चारपाई पर चढ़ गया । पर लड़की के सत्‌ से कालरूप सर्प को भी ज्ञान उपजा श्र वह प्रतीक्षा करने लगा कि लड़का कुसूर करे तव वहू काटे । वह लड़के के शरोर पर चक्क काटने लगा । जेसे ही चह रेंगता हुम्रा लड़के के पर पर पहुँचा कि उसने पर से उसे भटक दिया । बस सर्प को बहाना मिल गया श्रौर उसने लड़के को काट लिया । सुत-सा पतला साँप अब खुब बड़ा वन गया था । उसे देखकर लड़का समभझ गया कि मेरी मौत अब निकट हो है। चहू अपनी वहू से वोला, “तू कसी गहरी नींद में सो रही है । उठकर देख कि मेरे सारे शरीर ७ में विप फलता जा रहा है। जल्दी से कोई उपाय कर नहीं तो पछतायेगी ।'' गुरु के जादू से लड़की की नींद नहीं टूटी श्रौर लड़का मर गया । इसके वाद लड़की को श्राँल खुली तो देखा, उसका पति मरा पड़ा है। चारपाई के नीचे साँप को देखकर सारी वात उसका समभ में श्रागई । उसने कमरे का दरवाजा खोला और सेठ से कहकर गंगानदी में नाव डलवाई । उसने अपने पति के दाव को नाव पर रक्खा । साय में एक काली घिलली ली श्रौर एक दूध से भरा मटका । उस नावमें वैठ कर वह इन्द्र- पुरी को चल दी । उसी समय इन्द्रासन डोलने उठा, बादल गरजने लगे श्रौर विजली कड़कने लगी । नाव खेते-खेते लड़की




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