षट द्रव्यकी आवश्यकता और सिद्धि और जैन साहित्य का महत्व | Shad Dravyaki Aavashyakta V Siddhi Or Jain Sahityaka Mahatva

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१) ने आत्मामें ज्ञानशक्ति है वह आस्मासे प्रयकू नहीं पाई नाती, या उम ज्ञानशक्तिसे आत्मा भा नहीं पाई ना सकती । श्री नेमिचन्द्राचायेने सुकषमनिगोदिया रूू्ध्य पर्याप्क जीवसे सबसे नधन्पज्ञानको . पर्याय ज्ञान नामसे कहा है । यहां पर्याय समाप्त, भ्तर, भक्षरस़माप्त आदिपें जैसे उनका ( पर्थाय समाप्ताहिका ) आवरण उन्हींके ऊपर पढ़ता है. यानी पर्याय समाप्त ज्ञानावरण ' पर्याय पमाप्त 'श्रुतज्ञानके उपर पढ़ता है । अपर ज्ञानावरण अक्षर श्रतज्ञानके ऊपर, अक्षर समाप्त ज्ञानावरण अल्र पमास श्रुतज्ञानके ऊपर पढ़ता है उसी तरह पर्याय ज्ञानका आवरण मी पर्याय श्रतज्ञानके ऊपर पढ़ना चाहिये, लेकिन ऐमा न होकर पर्यायज्ञान, पर्याय समाप्तज्ञान इन दोनोंका सावरण पर्थय प्रमाप्त अक्त्ानके उपर ही पहता है इसका कारण यही है कि ज्ञानकी से कप अवस्था है और उसपर भावरण पढ़नेसे आत्माकि ज्ञानयानप- नेका ज्ञान केसे हो सकेगा यही बात श्री जीवकाण्डमें प्रतिगादित है । णर्वारि विसेसं जाणे खुहुम जहण्णं तु. पह्् णाण | पज्ञाधा वरण परण तद््णतर णाण भेदेहिं ॥ अधे-सूक्ष्म निगोदिया टन्‍्व्यपर्याप्तकके तबे जघन्य ज्ञानकों पर्यायज्ञान कहते हैं गौर पर्याय ज्ञानावरण पर्यावके बाद़में कहे गये पर्याय समा ज्ञानके ऊरर पढ़ता है और वह पर्याय ज्ञान इस गांधाकि भनुतार- ही खुद्दमाणि गोद झपज्ञत यस्स जादस्प पदम समधघम्हि । हवदि हुसव्च जहदण्ण णिन्नघ्घाण णिरावरणमू्‌ ॥ यानी-सुश्म निगोदिया ब्ध्यपर्याप्रत नो कि उत्पन्न होनेके प्रथम समयं . ही है तब उतके ज्ञानकों पर्याय ज्ञान कहते हैं वह आवरण रहित तथा नित्य ही प्रकाशमान रहता है इत्यादि इत्यादि | यह दृशन्त सरूप जो आता उसके ज्ञान गुणकी भप्रवक सिद्धिमें प्रतंगवदष कहा गया है | मन रृष्टान्त त्वरूप भात्मामें ज्ञान जैसे भमित्तत्वेन रहना है उसी प्रकार अनन्त- गुणल्र मी द्रव्पसे अभिन्न जानना चाहिये | उक्त कथनसे यह बात पिद्ध की गई कि नो जय पद्रम्य लसणका है कही गुणपरययवहूण्यका है । द्रष्पमें दो गुण रहते हैं । एक सामात्थे एक विशेष । सामान्य शुण उठे कहते हैं नो नदुतसी ट्रन्योंमें एकसा पाया नाय नेसे सत्व अगुरुदुलादि जो एक ही छन्णमें रहे न] हट




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