सत्यवादी श्रीयुत सेठ गुलाबचंद जी | Satyavadi Shriyut Seth Gulabchand Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) धनवानोंका कर्तव्य । चला छक्ष्मीयला माणायले जीवितयोवने | चलाचले च संसारे धर्म एको दि निश्चल: ॥। अर्थात्‌ नीति शास्रका कयन हैं कि लक्ष्मी अविर और अस्थायी है । जीवन और यौदन देखते देखते नाशकों प्राप्त हो जाते हैं। इस अकारके चलायमान असार संतारमें धर्म ही एक निश्वल और सार मूत हैं । भावार्य-कोई मनुष्य इस वातकागर्व न करे कि मेरी ल्मी सदा झास्वती बनी रहेगी; मेरे दर्शों प्राण स्थायी रहेंगे । अयांत्‌ मैं चिरकाल जीऊंगा और यौवनशाढी बना रहूँगा। यह. सब अम- विछाप्त है। कर्मकी उपाधि जनित सामग्री है । जो दस्तुस्वरूपके ज्ञाता होते हैं, जिनका भावी अच्छा है उन्हें इस वातका विश्वास रहता है।कि इस जीवका हित करने वाला एक मात्र धर्म ही है । इसी कारण चार प्रकारके पुरुषायेंमिं घर्मका प्रयम अहण है, जिसके प्रमावसे अर्य; काम तया मो पुरुषार्यकी सिद्धि हो सकती है | संसारमें सभी मतावलंवी धर्मकों श्रेष्ठ वणेन करते हैं और उसीकी प्राप्ति आत्माका हित समझते हैं। देखा जाता है कि जव॒ पिपत्ति सवार होती है तब सभी उसकी निवृत्तिके लिये घर्मकी शरण अहण करते हैं । परन्तु ज्योही चंगे हो जाते हैं पुनः धर्मको विसार देते हैं । इरतीसि कहा है कि“ जो सुख्म प्रमुको मजे दुःख काहेको होय ”। आल कल रूदिप्रवाहसे इन्दियोंकि वशवर्ती होकर हम लोगोनि जड़ छदमी- को ही सुखका कारण मान रक्‍सा है; परन्तु यह छकष्मी चंचढावत्‌ चपछ है; पुण्यके क्षय होते ही विलीन हो जाती है ! वास्तविक 2 शक




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