धरसतांतपरदीपिनी सटीक भाग - ४ पूर्वाद | Dhrstantprdeepinee Satik Volume-4 Purvad

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Dhrstantprdeepinee Satik Volume-4 Purvad by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४1 पूवांद्ध हक लोभ अधिक हुआ और चाहा कि दश ँट और उससे हूँ । निदान फिर उसके पात गया घर कह सुन के दश डँट और, और शेप दूश ऊँट भी उससे ले दमदिलासा देके चला आया । योगी ने सबके सब उँट हँसी खुशी से सुमकों दे दिये और वख्र काइकर उठ खड़ा हुआ और चलने की इच्छा की; परन्ठु तुष्णा ने पुझे न छोड़ा | बह मट्हम की डिविया थी योगी से लेनी चाहिये, निदान फिर मैंने ठइरकर उस योगी से कहा ठुम इस डिविया को जिसमें मट्हम है; अपने पास रखकर क्या करोंगे ? उसे भी कृपा करके मुझे देदो । उसने उसको देने से इन्कार किया ! इससे मुके अधिक झभिलापा हुई और मेंने अपने मन में ठाना कि यदि वह योगी प्रसन्नता से डिविया देवे; तो बला नहीं; तो जोरसे उससे ले दूँगा । योगीने डिविया अपनी जेवसे निकाली चर कहने लगा “भाई जो तुम्हारी प्रसन्नता इसी के लेनेमें है; तो ले लो; परंतु तुझे उचित हैं कि इस मर्हम का शुश मुमसे पूछले । ” मैंने उस डिविया में मरहम भरा देख: उस योगी से कहा “जहाँ तुमने झुक पर इतनी झपा और उपकार किए हैं. तो इतका गुण भी मुझे वता दीजिये ।” उसने कहा; “इसके गुण 'झदुभुत और विचित्र हैं । जो तुम इस मदहम में से थोड़ा सा झूपने वायें नेत्रमें लगाओफ; तो हुम्हें संसार भर के कोप दिखाई देंगे। और जो इसी मरहम को अपनी दाहिनी आँखमें लगाओ, तो ठुम दोनों आँखों से अंधे हो जाओगे ।” मैंने परीक्षा के लिये उस डिंविया को योगी के हाथमें देकर कहा» “तुम इसके गुथ को मली भाँति जानते हो » अपने हाथ से मर्हम मेरे पायें नेत्र में लगा दो ।” उस योगीने मेरी आँख वंद करके थोड़ा सा मल्हम




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