प्रवचनसार प्रवचन तृतीयभाग | Pravachansarpravachan Volume - 3

Book Image : प्रवचनसार प्रवचन तृतीयभाग   - Pravachansarpravachan Volume - 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) सब अपनी सिन्न भिन्न लक्षण सत्ताकों लिए हुए होते हैं, परन्तु वे ज्ञानसे सिन्न नहीं । उस दात्माकी शक्तियों को बताया जारदा है कि वे सब गुण उस श्रात्मा द्रव्यसे भिन्न नहीं हैं और द्रव्य की सत्तासें ही हैं इसलिए सच असिन्र हैं । प्रारंभिक दशा सें शिप्यों को समकाने के लिए भेदर्दप्टिसि चणन होता है ओर समभक चुकने के वाद अमेद इष्टिसि वर्णन होता है यह श्रध्यात्स व्नका तरीका है । झाध्यात्म अनुभव में उतर हुएको पूछे कि सोकमाग क्या है तो बड़ एकदम यह नहीं कहेगा कि दर्शन ज्ञान चारित्र ही मोक्ष माग हैं । परन्तु यह कहेंगे कि जो एक [नमात्र अमेद परिणति सोक्ष की चलती होती उस एक परिणति को कहेंगे कि यह अमेदाजुभव सोक्षक्रा मार्ग है । फिर वे कहेंगे कि ज्ञान का श्रद्धान स्वभावसे रदना सो सम्यक दर्शन है, ज्ञानका ज्ञानस्वभावसे दोना सो सम्यक ज्ञान है ओर ज्ञानका रागादि भावों के त्यागके स्वभाव होना सो सम्यऋ चास्त्रि दे । इसलिए ज्ञान ही दशन ज्ञान दी ज्ञान और ज्ञान दही चारित्र दे यद अभेद टष्टि से बतारदे । चारित्र वह जो किसी वस्तु का जाने ओर ऐसा जाने की उसके जानने में रागादि भाव नहीं रहे, परन्त घह चारित्र क्या ? चारित्र बह कि जो बहुत देर तक नानसय चना रहें । दर्शन कया ? ज्ञान का ज्ञान रूप से बना रदना और इससे विपरीत श्रद्धा न लाना, इसीको दर्शन कहते हैं । नो ज्ञान का ज्ञान रूप से चना रहना यह सामान्यतया अनुभव किया यहीं दशन हुआ श्र ननान का ज्ञानरूप से होना, चढ़ झ्ान इस व बडुत देर तक बना रदडना यद हद चारित्र । तो इस प्रकार दर्शन ज्ञान शरीर चारित्र ये तीनों गुण झभेद हीहे। कर ब्यच यह प्रश्न होता कि ज्ञानमें यदि अनन्त गुण आगए तो नान द्रव्य होनायगा 1 गुण जो दोते हैं थे द्रव्य के आधार से होते हैं, तो सारे गुण ज्ञान के ्राधार होते हैं तो ज्ञान को द्रव्य होजाना चाहिए । इसका समाघान यदद है. कि यहाँ अन्य गुणाकों जो ज्ञान सें मिलाया वद्द आधार से नहीं मिलाया है । वे तो सदयोगी होकर मिले




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