कैकेयी | Kaikai

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Kaikai by चांदमल अग्रवाल - Chaandmal Agrawal

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about चांदमल अग्रवाल - Chaandmal Agrawal

Add Infomation AboutChaandmal Agrawal

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
शापा की चारुता, भावों की गम्मीरता, मुहावरों का प्रयोग, कल्पना- व विलास भर मामिक अभिव्यवितयों के कुछ और नमूने देखिये-- श्‌ थ मृक्षये गमन वे' का अभाव अहित्दी प्रदेश चले दण्ड-फोदण्ड-मुगदल-गदा, तड़ित कौंघती मसि चमकती जिंघर । विजय तो बिचारी भटकती रही, इघर से उघर, फिर उघर से उधर ॥ ्‌ (सर्ग ३, छन्द २६) चांद ने तब पुर्वे दिशि से शाँककर, मुसकुरा नभ पर बिखेरा सित सुमन ॥ हुए से खिल-सिल उठा संध्या-वदन, प्रेस शशि का सहज, निश्चल आँक कर ॥ (सगे ४, छन्द ३४) प्रथम इसके कि डसने फन भुजग खोले । उचित यह, कुचल दें मुझ गरलमय उसका ॥ (सर्ग ४५, छन्द ५०) रहें राज्य तब, शूठ कहूँ तो दें सजा । उड़ती चिड़िया-गगन, चेरि पहुचानती 0 (सगे ७, छन्द ४) फिर करे सन्देह फोई इस तरह तो/ तन सुलगता लोट उर पर साँप जाता । (सर्गे ८, पंक्ति १२१/१९९) भोर होते भाग्य पर कोई हेसेगा/ आ' किसी पर भाग्य ही हंसने लगेगा । (सगे प, पंक्ति १ प६/१ ७) झोभन, या मंतर रणधीरों को ? हो, कुछ कर जावे वीरों को ॥ (सर्ग ११, छन्द ६७) छोड़ते उसे) क्यों रोष उस पर द नेढ अपने, दोष किस पर ? (समगं १४, छन्द ५९) रण या वन गहन, सदन हर संकट देवी अवसर (सगे १र्थ, छन्द र८) में जैसे एकाघ स्थान पर ने के प्रभाव के कारण समझना चाहिए । सगे ५ के ३४ वें




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now