बृजभाषा के कृष्णभक्ति काव्य मैं अभिवंजना - शलिप | Brijbhasha Ke Krishanbhakti Kavya Main Abhivenjana-shilp

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Brijbhasha Ke Krishanbhakti Kavya Main Abhivenjana-shilp by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० प्रजमापा के कृष्ण-भक्ति काव्य में श्रमिव्यंजना दिल्‍्प वात ऐसी नहीं है। यद्यपि काव्य-प्रक्रिपा को “आध्यात्मिक छिया' कहने का लोग वह नहीं संवरण कर पाये हूं परन्तु उन्होंने भौतिक उपादानों का पूर्ण रूप से निपेघ नहीं किया है ! उनमें भ्रन्तनिहित भावात्मकता की स्वीकृति ही इस वात का प्रमाण वनने के लिये यपेष्ट है । एक प्रइन श्रौर उठता हैं कि क्या मानंव-मन की इईहात्मक तथा झनुभूत्यारमक स्थितियां एक दूसरे की पूर्णतया विरोधी हैं ? कला-प्रक्रिया के संदिलप्र विन्यास में कया एक की श्रव- स्थिति दूसरी के निपेंघ से ही सम्भव हो सकती है ? सहजानुमुतिमूलंक जात व्यंजक शान है । सहजानुभूतिमूलक ज्ञान दूसरे शब्दों में श्रनुसुतिमूलक ज्ञान ही है क्योंकि उसके मूल में श्रखंड- संवेदना की झवस्थिति है। ढा० मगेत्द्र ने भी एक स्थल पर दोनों का प्रयोग साथ-साथ किया है ।' श्री लक्ष्मीनारायण सुघांशु को भी सहजानुभूति को श्रतुभूतिवाद से सम्बद्ध करने में चिक्षेप झापत्ति नहीं है । न “ग्रात्मा के कारखाने की वात भी इतनी हास्यास्पद नहीं है जितनी कि शुक्ल जी ने बना दी है। कल्पना श्रथवा सूर्त भावना झ्रात्मा की झपनी क्रिया है । इसे शुक्ल जी दाशेनिकता का मजहूवी पुट मानते हैं जिसका प्रयोग झावश्यकता पड़ने पर श्रव्यक्त श्र भ्रनिर्वचनीय का सहारा लेने मात्र के लिये किया गया है । मेरे विचार से श्राचार्य शुक्ल ने यहां भी क्रोचे के साथ न्याय नहीं किया है । श्रात्मा के खजाने से निकले हुये सांचों में 'द्रव्य' को मसाले के रूप में भरने की स्थिति तो तव कल्पनीय थी जव -क्रोचे ने “श्राकृति' श्र “वस्तु” की स्थिति पृथक्‌-पुथक्‌ मानी होती । उसके धनुसार तो सहजानुशूति झुतिवद्ध (रूपवद्ध) ज्ञान है । मेरे विचार में झाचायें शुक्ल ने क्रोचे के सिद्धान्तों को नगण्य सिझ करने के लिये प्रक्रिया का विष्लेपण ही उल्टे रूप में किया है। उनके द्वारा किया हुभ्ना झ्राध्याहिमिक क्रिया का प्रथ॑ काव्यानुभूति की सूक्ष्म मानसिक क्रिया के ज्ञानमूलक भ्रष्यात्म-दर्शन के अधिक निकट आता है । उनके विवेचन के श्रतुसार क्रोचे के सिद्धान्तों के श्रनुसार कान्य-प्रक्रिया इस रूप में होगी । कवि अथवा कलाकार ध्यानावस्यित होकर चिन्तन करता है। झलौकिक हृष्यों के रूप में प्राझृतियां उसके सामने साकार होने लगती हूं घौर तव वाह्म-जगत्‌ से “मसाला' ग्रहण कर उन श्राकृतियों में डाल कर कलाकार भ्पनी कृति का निर्माण करता है। यदि क्रोचे के भ्रनुसार काव्य-प्रक्रिप यही हैं तव तो वितण्डावाद है झ्रवक्य परन्तु उसके सिद्धान्त इतने सोखते नहीं हैं । सहजानुमूति की प्रज्ञानाटमक स्थिति तथा उसकी श्राव्या्मिकतता दोनों ही सत्य हैं। क्रोचे काव्यानुसूति को स्वयं 'प्रकाइय मानता है श्रौर नाह्य-जगतू की भावात्मकता को स्वीकार करते टये उनके झ्न्वित रूप-समूह हारा निमित पूरणं चित्र को ही झ्रभिव्यंजना । ऐसी भी स्थिति सम्भद है जव वाह्य-जगत्‌ के प्रति वोघ-ज्ञान भर संवेदना के अ्रमाव में भी १० नहां तक कला की अनुभूति या सइजानुभूति का प्रश्न हे. कोई भी उसकी खंडता व घखरणड है +.... -श्रलंकार भीर भलेकाये, प्ृ० १२, 'घलीगढ़ विश्वविद्यालय में दिया गुया झमिमापण २८ सदजानुमूत्ति को श्ननुभूतिवाद से सम्पद्ध करने में हमें विशेष शापत्ति नदी हे. । दोनों को दम एक सीं नदीं मान सकते । परन्तु दोनों में नो समानता हे; उसी से दोनों को सम्बद्ध किया ना सकता है. | “काव्य में झामिय्यंजनावाद, प० ३४--लदमीनारायण सुषांशु में सन्देह नहीं करता,




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