प्रतिध्वनि | Pratidhvani

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Pratidhvani by जयशंकर प्रसाद - jayshankar prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ गूदढ़ साई लौटते हुए मोहन ने उसे दख कर पुकारा ! श्रीर वह लौट भी श्राया । “मोहन दर “तुम आजकल श्ाते नहीं ।”” “तुम्हारे बाबा बिगढ़ते थे ।” “नहीं; तुम रोटी ले जाया करो ।”” “भूख नहीं-लगती |” “बच्छा कल ज़रूर आना; भूलना मत !'' इतने ने एक दूसरा लड़का साइ का गूदड़ खींचकर भागा । गूदड़ लेने के लिये साई उस लड़के के पीछे दौड़ा । मोहन खड़ा देखता रहा, साई आँखों से ्योमल हो गया । चौराहे तक दौड़ते-दौड़ते साई को ठोकर लर्गा, वह गिर पड़ा सिर से खून बहन लगा । खिभाने के लिये जो लड़का उसका गूदड़ लेकर भागा था वह डर से ठिठक रहा । दूसरी बोर से मोहन के पिता ने उसे पकड़ लिया, दूसरे हाथ से साई को पकड़ कर उठाया । नटखट लड़के के सर पर चपत पढ़ने लगी; साई उठ कर खड़ा हो गया । मित मारो; मत मारो चोट आती होगी !' साई ने कहा; और लड़के को छुड़ाने लगा ! मोहन के पिता ने साई से पूछा;-- “तब चीथड़े के लिये दौड़ते क्यों थे ?”” सिर फटने पर भी जिसको रुलाइ नहीं आई थी; वही साई जड़के को रोते देख कर रोने लगा । उसने कहा;--“बाबा मेरे




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