दैनिक जैन धर्माचार्य | Danik Jain Dharmcharya

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Danik Jain Dharmcharya by अजीतकुमार शास्त्री - Ajitkumar Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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. सूर्ति दि देखने के लिये भी '्ञाकर्षित (खिंचते) हुआ करते हैं चलचित्र (सिनेमा) सें जड छाया-चित्र दी दौख़ पढ़ते हैं । उस सिनेमा को देख कर दी मन में झानेक तरह की तरगें उठा करती हैं। कामी स्त्री पुरुप अपनी कामवासना जाश्रत रखने के लिये कामातुर स्त्री पुरुपों के चित्र 'झपने यददों सजा कर रखते हैं, त्यागी विरागी झपने यहाँ साधु महात्माओों के चित्र सजाते हैं, सरकार छापने देश के ने हाष्मों तथा वीर की मूतिया सचे साधारण स्थानों पर स्थापित करती हैं । का तदजुसार सन को 'छन्तमुख (दत्मा की ओर) करने के लिये शुद्ध चुद्ध परमात्मा की मूर्ति नेत्रों के लिए कार्यकारी है । क्योंकि 'आात्मा का जो स्वरूप (धीर, वीर, गम्भीर, शान्त, राग” द्वेप रहित, स्वात्म-लीन) शास्त्रों में पढ़ा जाता है उसको समभने के लिए बैसी मूर्ति भी तो आआखों के सामने 'ानी 'चाहिए। जेस कि भूगोल का ज्ञान मानचित्र (नकशे) के बिना देखे नहीं हुआ करता । द्वाथी, सिंद 'झादि की शक्ल सूरत का ज्ञान कराने के लिए या पूर्वज (श्रतक) पुरुपों का बोध कराने के लिये उन सिंद पूर्वज स्त्री पुरुषों के चित्र मूर्ति 'ादि टिखलाने 'झावश्यक दोते हैं । उसी तरह झपने लक्ष्य परमात्मा का ज्ञान कराने के लिये परमात्मा की चीतराग मूर्ति की झावश्यकता है । वीतराग प्रतिमा को देखकर ही सन में यद्द भावना जमती है कि अपने छाप को वाहरी वस्तुझ्नों के सम्पकं से लग रख कर इस 'झादन्त परमात्मा की यूर्ति की तरद शांत, घीर निर्भय,. 'ात्मा में लीन होना चाहिए, ऐसा हुए बिना सासारिक व्या- छुलता दूर न हो सुकेगी । भ भावना कंसी होनी चाहिये 'अझरदन्त परमात्मा की प्रतिमा का दर्शन; पूजन, ध्यान करते कफ के




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