जैन संप्रदाय शिक्षा | Jain Sampradaya Shiksha

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Jain Sampradaya Shiksha  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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' प्रथम अध्याय 1 ण् महांत्माओं का संग संदेव क्रिया करो । जीवदान और विद्यादान सब दानों से बढ कर हैं । कभी किंसी के जीव को मत दुखाओ । सब काम ठीक समय परें किया करो । स्वामी.को सदेव प्रसं्र रखने का यत्न करो । दियय॑ मनुष्य की आंख खोल देंती है । सजन' विपत्तिमं भी सरीखे रहते हैं, देखो जाने पर कपूर और भी सुगन्षि देता है तथा सूये रक्त ही उदय होता है और रक्त ही अख होता है । ब्राह्मण, विद्वान , कंबि, मित्र; पड़ोसी, राजा, ' गुर, सी; इन से कभी विरोध मंत करो । मण्डढी में बैठकर किसी स्वादिष्ट 'पदार्थ को उठे मत खाओ । बिना जाने जठ में कभी प्रवेश मत करो । नख आादि को दौंतसे कंंगीः मर्त काटो | उत्तर की तरफ सिर करके मत सोओ | विद्वान को राजा से भी बढ़ां समझो । एकता से वहुत ठाभ होते हैं इस हिये इस के ठिये चेषटा करो | प्राण जाने पर भी धर्म को मत छोड़ो || के मी लि यह प्रथम अध्याय का वर्णसमाज्ाय नामक प्रथम प्रकरण समाप्त हुआ | दूसरा प्रकरण ( व्याकरण विषयक ) बनना” मुनि, 2 रा इस में कातत्र व्याकरण की प्रथम सच्धि दिखलाई गई हैः संल्या शुद्ध उच्चारण | अगुद्ध उच्चाण ॥ |... अंथैविवरण | १ सिद्धो वणसमाज्ञायः | सीद्धा वणो समामनाया ॥ |वर्णसमाश्ञाय अथात्‌ वर्णसेपु 'दाय स्वयंत्तिंद्ध हे अथांत्‌ सा घित नहीं हैं || २ तत्र चतुदेशादों स्वरा: | त्रे तरे चतुरक दश्या दंसवारा उनवर्णीमें पहिठे चोद सर हैं। ३ दश समाना: ॥ दशे समाना ॥| उनमें से पहिे दश वर्णा की समान संज्ञा है ॥ ४ तेषां द्लो द्वावन्योडन्यस-ति खाउ दुधवा वर्णों त- उन समानसंज्ञक वर्णो में दो दो ब्णों |. सीस वर्णो || वर्ण परस्पर सबणी माने जाते हैं॥ ५ पूर्व हुस्र: || पूर्वो हंस्था || उन द्विक वर्णो मे से पूवे २ वर्ण हु कहाते हैं | ६ परो दीषे; |... पारो दीख़ा | उन्हीं ट्विकों में से पिछड़े वर्ण » दीप कहाते हैं ॥ ' ७ स्व॒रोध्वणवर्जों नामी ॥ सारो बणा विन ज्योनामी | न अवण को छोड कर शेष स्वर ' नामी कहते है | लामाामवााााा १, अकार से हैकर हकारपरयत ॥ १. भ से ठेकर औ परत ॥




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