टर्की का मुस्तफा कमालपाशा | Tarky Ka Mustapha Kamalapasha

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Tarky Ka Mustapha Kamalapasha by शिवनारायण टंडन -Shivnarayan Tandon

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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टर्की का मुस्तफ़ा कमाल्पाशा दे दवाएं निकला करतों, जो दिन-दहाड़े रेंगती हुई चुड़लों या मुतनियों-सी प्रतीत होतों । मकानों के दरवाज़े सदा बंद रक्‍्खे जाते; खिड़कियाँ भी उड़की हुई रहतों। ख़ियाँ घोर अधकार और मूर्खता का जीवन व्यतीत करतां । थोड़े में इतना कह देना अलमू होगा कि उनकी जीवनियाँ कुत्ते और विछ्ियों से भी गई- चीती थीं । जुवेदा भी औरों की तरह घर की वाउ ड्री में बंद रहा करती । .जब मुस्तफ़ा पैदा हुआ, तव वह तीस साल की थी । जब वह सात साल की थी, तव से बुरक्ने के अंदर रह रही थी । वह शायद ही कभी घर की 'देहरी के बाहर निकलती, और जव जाना ही पड़ता, तब अपने संरक्षकों से घिरी रहती ! उसे शायद ही कभी लोगों से बात करने का मौक़ा मिठता--सिवा उन लोगों के, जो उसकी पड़ोसिनें थी । जुवेदा वित्कुल निरक्षर थी-न लिख सकती थी, न पढ़ सकती थी। बाहरी दुनिया के रंग-रवैए , और तौर-तरीक़ों से वह सबंधा अपरिचित और अनभिज्ञ थी । तुक छोग अपनी ल्ियों पर बहुत अविश्वास किया करते थे । उसकी दृष्टि में महिछाएँ खाना पकाने; गहस्थी संभाठने, बच्चे जनने और छड़कों को पाठने के अर्थ ही जन्म छिया करती थाों । फिर भी जुवेदा अपने नन्हे-से छुदुब की मालकिन थी | उसमें शासन करने की दाक्ति थी। हाँ, गुस्सेल बहुत थी । जुबेदा अच्छे किसान-खानदान की ठड़की थी। शरीर से ठंबी और तंदुरुस्त थी । उसके बाठ खूब घने थे; आँखें नीठी थीं,




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