गुप्त जी की काव्य - साधना | Gupt Ji Ki Kavya-sadhana

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Gupt Ji Ki Kavya-sadhana by उमाकान्त - Umakant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ सिमिट सी सहसा गई प्रिय की प्रिया, एक तीक्षण झ्पाग ही उसने दिया । किन्तु घाते मे उसे प्रिय ने किया, श्राप ही फिर प्राप्य श्रपना ले लिया ।' परन्तु सभोग पर गाइस्थ्य का पावन श्रावरण शिलमिला रहा है । रीोति- कालीन वर्णन की भऋरलक भी कही-कही हष्टिंगत होती है, जैसे--+ हुलघर बन्धु को उठाए गिरिराज सुन, श्राई बृषभातुजा मराल की सी चाल से । देख सखियो के सग सुन्दर लता-सी उसे, सुग्ध गिरिधारी हुए चचल तमाल से । डगता जान कम्प से करस्थ दल क्रीडा का ब्रीडावश बन्द किए लोचन विज्ञाल से । पर इसमें उस युग की श्रमर्यादित उच्छूखलता नाम को भी नही है । रस के विभिन्‍न भ्रवयव तो उपर्युक्त उद्धरण मे स्पष्ट है ही । बस, सिद्धराज से एक प्रवबतरण श्रौर देख लीजिए--- पहुँची परन्तु ज्यो ही मन्दिर से सुदरी दीखा श्राप श्र्णोराज सम्सुख श्रलिन्द मे, ललित-गभीर, गौर, गौरव का गृह-सा, एकाकी विलोक जिसे गरिसा ने भेंटा था । सकुचित होके कहाँ जाती राज़्नात्दिनी बन्दी के समक्ष स्वय बन्दिनी सी हो उठी ! प्राके जड़ता ने उसे ज़कड लिया वहीं, स्तम्भ वह भी था, श्रवलब लिया जिसका ' हो गए श्रचल एक पल को पलक भी, कितु वहू रूप-भार कब तक झिलता ? श्राह्म दुसरे ही क्षण दृष्टि नत हो गई । यहाँ काचनदे श्रौर श्रणोराज झलम्बन-श्रा्रय है । श्रणोराज का लालित्य वैनीुएतए।ल्‍ए'।एएल्‍एएल्‍ल्‍एसिशशकटटशीसएससकल १. साकेत, सरकरण सबतू २००५४, पृ० ३० २. पच्चनप्रबन्घ; द्वितीय सरकरणु, पृ० स्‍प८ ३ सिद्धराज; तृतीय सस्करण, प० १४०३४




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