गीता की कला | Geeta Ki Kala
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
341
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)छान छदगधटयाडादयबाननछडन: गीताकान :छसटयागअजन बनऊधदनऊ गगन
आश्रय ले लेता है और उससे कसी अलग नहीं होता । विद्या, कला;
कुशलता और ज्ञान-विज्ञान की साधना सन लगाने वाले के लिये
सरल हो जाती है ।
श्रीकृष्ण ने कहा--
१- सयि श्रासक्तमना:-मुझमें लगे हुए सनवाला
संसार में; संसार के नश्चर पदार्थों छोर विपय सोगों सें
मन लगाना नहीं पढ़ता; स्वयं लग जाता है । सार-तत्त्व में; शाश्वत
सत्य में, आत्मयोग में मन लगाना पढ़ता है; क्योंकि वह प्रत्यक् नहीं
है। प्रकृति दिखती है; परमेश्वर नहीं दिखता । अनार्म पदार्थ सर्वेत्र
सन्मुख रदते हूं । रूप रंग रहिंत होने के कारण आत्मा सदा सम्मुख
महीं रखा जा सकता । मन प्रत्यक्ष को चाहता है; विपय सोगों में
सुख मानता है ।
परमेश्वर को जानने के लिये-उसके प्रत्यक्ीकरण या साक्षात्कार
के लिये पहली शर्तें है उसमें मन लगाना --मन लगाने का सच्या साथ
हे--डापनी शक्ति को परमात्मा की अनन्त शक्ति में मिलाना; अपनी
ज्योति को उसकी ज्योति में मिलाकर ज्योतिमय रखना; पूर्ण रूप से
नियन्त्रण करके इन्द्रियों को अन्तःकरण सहित परम तत्त्व की ओर
फेर देना; शुस सें नियुक्त रदुना, सागवत भाव में विचरना ।
परसात्सा सें लगे हुए मनवाला ही योग का आचरण करता है
श्रीकृष्ण ने परसात्म वोघ की दूसरी शर्तें रखी दे
२८ योगम् युज्जनुन्योग में लगा हुआ
मन को आत्मा-परमात्मा और समस्त शुस कर्मों में लगासा
योग का ध्येय है और लग जाना योग है । योग अनेक प्रकार का हो
सकता है; पर समस्त योगों का लक्ष्य स्वमाव से परमात्मा में टिक
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