बृहत्त्कथाकोश भाग 1 | Brihatkathakosh (vol. - I)

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Brihatkathakosh (vol. - I) by राजकुमार शास्त्री - Rajkumar Shastriहरिशेनाचार्य - Harishenacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चृहत्कयारोश षु अपन अपने घर चली गई । सभी स्त्रियाँ अपने अपने पतिकें पास पहुँची और उन्हें विष्णुद्तका वृतान्त सुनाने लगी । अपनी अपनी पत्नियोकी वात सूत्कर विचारे अन्धोंके मनकों वडा आधात लगा । वे घन श्र दृप्टिकें छालचमसे जल्दी जल्दी दौडने छगें । इस तरह दुखी होकर कुछ कुन्नो में गिरे, कुछ तालावमें गिरे, कुछ नदियोमे सिरे, कुछ वापि- काओमे गिरे और कुछ छोटी तलेयोंमे । वृक्ष भर पत्थरोसे टकरानेंके कारण उनके समस्त अग-भग हो गए और उन सचनें रौद्र और भातेथ्यानके साथ अशुभ परिणामोसे जीवन- ऊीला समाप्त कीं । तुष्णावश स्थानश्रष्ट होकर लइखड़ातें हुए कुछ दुप्ट चरकगतिमे जा गिरे जौर कोई तिर्यव्च गतिसे । इस प्रकार यदि चविप्णुदत्तने घन और दृष्टि प्राप्त की तो दूसरोने मरकर दुख-परम्परा ! इसलिए ससारमे नि.सन्देह पुण्यात्मायों गौर पापात्माओका समान प्रयोजन नहीं हू सकता । पुण्यात्मा अपनी प्रवृत्तिसे सुख प्राप्त करते हे और पापात्मा दुख । इस प्रफार विप्णुद्तरो कथा सम्पूर्ण हुई 1 का ४, सोमदत्त और चिदयुच्चोरकी कथा मगघ देसमें राजयृह नामक नगर या । वह घन घान्यसे भरा हुआ था। और पुरवासियोस आकीर्ण था | उस सगरमें प्रजापाल नामक राजा रहते थ्रे | उन्होंने भपने समस्त णशु नप्ट कर दिये थे और श्षपनी कीत्िसे मंपर्ण गगन और पृथ्वी-सण्टलकों घवल कर दिया था । वे प्रजाके पालन करनेम समर्थ थे और गुणोफे समूद्र थे । इनकी पढट्टानीका नगमि पानका था जो सुवणके समान उ्ज्चल थी | उसी नगरमे जिनदास नामके एक सेठ रहते थे । थे




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