साहित्यक समालोचना | Sahityik Samalochna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्चीन्द्रनाथ ठाकुर श्प छंद्थ के अन्दर प्रतिक्ण जो रूप घारण करते हैं, जिस स्मीवकों ध्वनित करके उठाते हैं, भाषारचित वही चित्र और वहीं गान साहित्य है 1 भगवानका आनर्द अ्रछृतिके वीचमें, सानव-चरित्रके वीचमें अपने को रबये सप्ट कर रहा है । सनुष्यका हृदय भी साहित्यमें च्पनेको सूजन करनेके लिए, व्यक्त करनेके लिए चेप्रा कर रहा झै । इस चेप्टाका छान्त नहीं है, यह एक विचित्र चात है । कचि लोग सानव-दृदयंकी इंस चिरन्तन चेप्राके उपलब्यमसात्र हैं 1 सगवानकी आनन्द्सष्रि अपने अन्द्रसे स्वयं निकल रही है । सानंव-द्दयकी आसन्दस्रि उसीकी प्रतिध्वति है । इसी जगत- सृष्टिके आनन्दमीतकी भार दमारी हृदय-बीणातंत्रीको अहरहः स्पन्दिति करती है 1 यही जो मानस-सज्ञीत है-सगवानकी सष्टिके अतिघातमें हमारे अन्दर यही जो स्रिका आावेग है ,--उसीका 'बिकासे साहित्य हैं । संसारका सिश्वास हसारी चित्तवंशी्े कोन सी रागणीकों बजा रहा है--साहित्य उसी को स्पष्ट करके व्यक्त 'करनेकी चेप्रा करता है । साहित्य किसी व्यक्तिविशेष का नहीं है, यह रच यितांका नहीं हे--वह तो देववाणी है 1 वाह सृष्टि जिस प्रकार झपती अच्छाई; घुराई; अपनी असम्पूर्णताको लेकर चिर्- कालसे व्यक्त होनेकी चेप्टा कर रही है--यह वाणी सी उसी प्रकार देश-देशसें, मापा-मापामें हमारे अन्तस्तलसे बाहर झेने के लिए सिरन्तर प्रयत् कर रही है । न्नफनिन




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