अखिल भारत चरखा संघ का तीन साल का काम | Akhil Bharat Charkha Sangh Ka Teen Saal Ka Kaam

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Akhil Bharat Charkha Sangh Ka Teen Saal Ka Kaam by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ही कार्यक्रम ने रख कर सफाओ और खाद-सम्पत्ति, परस्पर सहकोर, ' श्रमोयोग « स्वीकार व मिल-वस्ु-वहिष्कार की कार्यक्रम भी वे चलांवें। संघ के सहयोगी व स्वावलंबी सदस्य चरखा संघ ने खादी काम का स्थान या लक्ष्य महज कुछ वेकारों को रोजी दिखाने का ही नहीं माना है । जिसमें सत्ता का, आयोजन का, नेदृत्व का -केन्द्री- करण न हो; अधिक से अधिक विंकेन्द्रीकरण हो 'और झुतके 'लिये स्वाव॑त्रन तथा स्वर्ंपूर्णता के आधार पर सहकार के साथ सुसंगठन हो असी समाज-रचना का खादी सेक अनिवाय . अंग माना गया है और छिसी दृष्टि से संघ का काम चलाया जांता है । जिसछिये संघ ने कुछ मूलभूत तत्वों को और सिदूधान्तों को अपने कार्यक्रम मैं आग्रहपूर्वक स्थान दिया है। नयी समाज-स्वना के छिये झुन मूल्यों को छोड़ना संघ ठीक नहीं समझता है । संघ की सदस्यता भी जिन्हीं मूल्यों के आधार पर तय की गयी है । किसी तरह कि सत्ता, अधिकार या आर्थिक लाभ पाने के लिये संघ की सदस्यता में कोओ गुंजासिश नहीं रखी गयी है । लेकिन सपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के बारे में समाज में जिस तरह के स्वावल्वन और स्वयंपूर्णता की जरूरत संघ मानता है; झुसमें विदवास रख कर अपना हिस्सा वँँदने के छिये अमल करने वाढे को संघ अपना सदस्य मानता है। छिसके छिये नियमित. रूप से साल भर में ९० से २५ गज कपडे का सूत कातने वाले व्यक्ति को संघ ने अपना स्वावल्नी सदस्य माना है । देश के कपडे की औसत आवश्यकता «प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति “२० से २५ वर्गगज की मानी जा सकती है। दररोज १६० तार याने डे गुंडी सूतं काता जाय तो साल मर में औसत आवश्यकता जितना सूत कतता है। निष्टापूवंक; नियमित रूप से जो खितनी कताओ कर के अपना राष्ट्रीय हिस्सा अदा करता है; वह संघ का स्वावलंती सदस्य माना गया है। सिसमें संघ से देने-लेने की कोओी बात नहीं है। मानी हुआ बात है कि वह सदस्य विकेन्द्रित स्वावलबन व स्वर्यंपूर्णता में माननेवाला होगा । जिसलिये खादी के सिवा दूसरा कोओ कपडा काम मैं नहीं लेगा । मिल-वस्नर या मिल-सूत के वस्त्र का पूर्ण चहिष्कार करेगा । दूसरी सदस्यता संघ ने “ श्रम-दान ” की मानी है ।समाज-र्वना में जरूरी सहकार परे आधारित आदान-प्रदान के लिये पैसे का जरिया छूंढा गया। पैसा ओेक अच्छा साधन बना । मगर अपने आप में स्वभावतः मलाओी करने का गुण पेसे के साघन में नहीं है। छशिसलिये वह सहकार की जगह शोषण का साधन वन गया सर धीरे धीरे अर्थतत्ता जितनी बढ गयी कि अब सुससे केसे छुटकारा पाया जाय शिसके मार्ग. ढूंढे जाने गे हैं। आजकल: नि परिश्रम




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