पुनर्मिलन | Punarmilan

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Punarmilan by रामानंद शर्मा - Ramanand Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुनर्सिलन १७ उस धूम-घुन्ध वाले अपने रसोइ-घर में ही उसे घुसने दिया | लेकिन जव बह उदार-मना बूढ़ी; उस नई-नवेली को; अत्यन्त आवद्यक गरस पानी वाला स्नान-घर; साधारण आँवले का तेठ; मासूढी संदूछ-साचुन, एक सस्ता आदस-कद आइना न दिखा सकी; तब गद्देदार कुर्सियाँ; रोजवुड की मेज; गोद्रेज की आलमारियाँ; स्नो-पाउडर--आदि वह कहाँ से छाकर देती ? फिर सोटे-मोटे उपन्यास; आकाग-वाणी के गान; चार चित्र-पट, विविध पत्र-पत्रिकाओं (जिनके जंगछ में ही उसका जीवन बढ़ा था) की चर्चा ही फिजूढ । उसकी सहानुभूति और साधन में साधारणतया छत्तीस का ही सम्घन्ध दीख रहा था। वह ममतामयी चाहती तो थी बहुत-कुछ; पर छाती कहाँ से ? रसोई में खट्टी कड़ी और चटनियों की ही प्रचुरता पाई जाती थी | तरकारियाँ बाहर से कम खरीदी जातीं । भोजन में घी का उपयोग चरणास्रत के तौर पर ही हुआ करता था । छोंक-वघार की तो बात ही अछग, इडछी और दोशे मे भी तेठ का ही मेठ मिलाया जाता ! हो; वह तेल अवदय मीठा होता--अकड़॒वा कदापि नहीं । दृद्दी के दु्यन यदा-कदा ही हो पाते--दोनों जून अक्सर मट्टे का ही महद्दोत्सव मनाया जाता । इन सब पदार्थों की अनाभ्यासिनी उस अमीर घर की ठड़की को; अगर आए- दिन सिरःददे और पेट पीड़ा होती है; तो इसमें किसी को आश्यये ही कया होता ? ओर; वहाँ पिद-ग्रहद चाठा बह विशाल पुष्पोद्यान भी तो नहीं २




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