महावीर वाणी भाग 2 | Mahaveer Vani Part- II

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झ्० सहावीर-दाणी : २ भी नहीं है कि हुदय में शायद दुख और माँसू घने हो गये हैं । इतनी तीज हैं गति कि जय आप मुस्कराते हैं, तब तक शायद मुस्कराहूट का कारण भी जा चुका होता है । इतनी तीन्र है गति कि जब आपको अनुभव होता है कि आप सुख में हैं, ' तव तक सुख तिरोहित हो चुका होता है । वक्‍त लगता है भापकों अनुभव करने में । बौर जीवन की जो धारा है, (जिसको महावीर कह रहे हैं--सब चीज जरा को उपलब्ध हो रही है) वह इतनी त्वरित है कि उसके बीच के गेप, अस्तराल हमें दिखाई नहीं पड़ते । एक दिया जल रहा है । कभी आपने ख्याल किया कि आपके दिये की लौ में कभी भन्तराल दिखाई पड़ते हैं ? वैज्ञानिक कहते हैं कि दिये की लौ प्रतिपल धुर्भां वन रही है । नया तेठ नई लौ पैदा कर रहा है । पुरानी लौ मिट रही है, नई सौ पैदा हो रही है। पुरानी लौ विलीन हो रही है, नई लौ जन्म ले रही है । दोनों के वीच में अन्तराल हे, खाली जगह है । जरूरी है; नहीं तो पुरानी मिट नहीं सकेगी, नई पैदा नहीं हो सकेगी। जय पुराची मिटती है और नई पैदा होती है, तो उन दोनों के वीच जो खाली जगह है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ती । यह इतनी तेजी से चल रहा है कि हमें लगता है कि वही लौ जरू रही है । बुद्ध ने कहा है कि साँक हम दिया जलाते हैं और सुबह हम कहते हैं कि उसी दिये को हम बुक्ता रहे हैं, जिसे साँक हमने जलाया था । उस दिये को हम कभी नहीं बुका सकते सुवह, जिसे सांझ हमने जलाया था । वह लो तो लाख दफा बुक चुकी, जिसे हमने साँकि जलाया था । करोड़ दफा बुत चुकी, जिस लो को हम सुबह वुभक्ताते हैं। उससे तो हमारी कोई पहचान ही न थी, साँभ; तो वह थी ही नहीं । बुद्ध ने कहा है कि हम उसी लौ को नहीं वुक्ाते, उसी ली की धारा में जाई हुई ली को बुकाते हैं; संतति को बुभाते हैं। वह लौ अगर पित्ता थी, सो हजार-करोड़ पीढ़ियाँ वीत गई रात भर में । उसकी नव जव जो संततति है--सुवह--इन वारह घंटे के वाद, उसको हम चुकाते हैँ । इसे अगर हम फैला कर देखें, तो वड़ी हैरानी होगी । मैंने झापको गाली दी। जब माप मुक्के गाली लौटते हैं, तो यह गासी उसी मादमी को नहीं लौटती जिसने आपको गाली दी थी । ली को तो समझना लासान है कि साँक जलाई थी मौर सुबह जिसे वुभाया था लेकिन




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