राजयोग | Rajyog

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Rajyog by स्वामी विवेकानंद

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अवतरणशिका च्ृ डै, उन धर्मों के माननेवालो की सख्या भी अधिक हू । जिनकी ास्त्र-भित्ति नही है, वे धर्म प्राय छुप्त हो गए हे । कुछ नए उठे अवश्य है, पर उनके अनुयायी बहुत थोड़े हे । फिर भी' उकत' ससभी सम्प्रदायों में यह मतवय दीख पडता है कि उसकी शिक्षा 'विभिप्ट व्यक्तियों के प्रत्यक्ष अनुभव मात्र है । ईसाई तुमसे अपने धर्म पर, ईसा पर, ईसा के अवता रत्व पर, ईश्वर भौर आत्मा के अस्तित्व पर और उस आत्मा की भविष्य उन्नति की सम्भवनीयता पर विश्वास करने को कहता है । यदि में उससे इस विश्वास का कारण पूछूँ, तो वह कहता है, “ यह मेरा विदवास है । ” किन्तु थदि तुम ईसाई धर्म के मूल मे जाओ, तो देजोगे कि वह भी अत्यक्ष अनुभूति पर स्थापित है । ईसा ने कहा है, “मेने ईश्वर के ख्न किए हूं। ” उनके शिष्यो ने भी कहा है, “हमने ईश्वर का अनुभव किया है । ”--इत्यादि-इत्यादि । बौद्ध घर्म के सम्बन्ध में भी ऐसा ही हैं। बुद्धदेव की भूति पर यह घर्मं स्थापित है । उन्होने कुछ सत्यों का अनुभव किया था । उन्होंने उन सबको देखा था, वे उन सत्यों के सस्प्ण में भाए थे, और उन्हीं का उन्होने ससार में प्रचार किया । हिन्दुओं के सम्बन्ब में भी ठीक यही वात हैं, उनके शास्त्रो में “ऋषि नाम से सम्बोधित किए जानेबाले ग्रत्थकर्ता कह गए है, “हमने कुछ सत्यों के अनुभव किए है । ” और उन्ही का वे ससार मे प्रचार कर गए है । अत यह स्पष्ट है कि ससार के समस्त घर्म “उस प्रत्यक्ष अनुभव पर स्थापित है, जो ज्ञान की सवभौमिक और सुदृढ़ भित्ति है। सभी धर्माचार्यो ने ईश्वर को देखा था । उन सभी ने आात्मदशंन किया था, अपने अनन्त स्वरूप का ज्ञाव सभी को हुआ था, सबने अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ




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