प्रवचनसार अनुशीलन भाग 2 | Pravachansaar Anushilan Vol 2

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : प्रवचनसार अनुशीलन भाग 2 - Pravachansaar Anushilan Vol 2

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल - Dr. Hukamchand Bharill

Add Infomation About. Dr. Hukamchand Bharill

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
गाथा- ९३ प्‌ द्रव्यपयर्यि हैं और जीव -पुद्गलात्मक देव, मनुष्य आदि पयर्यि असमान- जातीयद्रब्यपयर्यिं हैं। गुर्णों द्वारा आयत की अनेकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत गुणपयर्यिं हैं। वे भी दो प्रकार की होती हैं -स्वभावगुणपर्याय और विभावगुणपर्याय। सभी द्रव्यों के अपने-अपने अगुरुलघुत्वगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होनेवाली षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप अनेकत्व की अनुभूति स्वभावपयर्यि हैं और रूपादि अथवा ज्ञानादि के स्व-पर (उपादान- निमित्त) के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होनेवाले तारतम्य के कारण देखने में आनेवाले स्वभावविशेषरूप अनेकत्व की आपत्ति विभावपयर्यिं हैं। अब इसी बात को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं - जिसप्रकार सभी पट (वस्त्र) स्थिर विस्तारसामान्यसमुदाय से और दौडते हुए आयतसामान्यसमुदाय से रचित होते हुए पट (वख्र) से तन्मय ही हैं, पटमय ही हैं; उसीप्रकार सभी द्रव्य स्थिर विस्तारसामान्यसमुदाय से और दौडते हुए आयतसामान्य समुदाय से रचित होते हुए द्रव्यमय ही हैं । जिसप्रकार पट स्थिर विस्तारसामान्यसमुदाय या दौड़ते हुए आयत- सामान्यसमुदाय गुर्णों से रचित होता हुआ गुणों से पृथकू अप्राप् होने से गुणात्मक ही हैं; उसीप्रकार स्थिर विस्तारसामान्यसमुदाय या दौडते हुए आयतसामान्यसमुदायरूप द्रव्य गुर्णा से रचित होता हुआ गुणों से पृथक्‌ अप्राप्त होने से गुणात्मक ही हैं। जिसप्रकार अनेक पटात्मक (अनेक वस्त्रों से निर्मित) द्विपटिक, त्रिटिक आदि समानजातीयद्रव्यपयर्यिं हैं; उसीप्रकार अनेक पुदूगला- त्मक द्वि-अणुक, त्रि-अणुक आदि समानजातीयद्रव्यपयर्यि हैं। जिसप्रकार अनेक रेशमी और सूती पटों के बने हुए द्विपटिक , त्रिपटिक आदि असमानजातीयद्रव्यपर्यायि हैं; उसीप्रकार अनेक जीव -पुद्गलात्मक देव, मनुष्य आदि असमानजातीयद्रव्यपययिं हैं।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now