ज्ञान का विद्या - सागर | Gyan Ka Vidya - Sagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र्‌ तुम पद-पंकज में अलि बन सुर-पति गण करता गुन-गुन है, गोमटेश प्रभु के प्रति प्रतिपल वन्दन अपर्ति तन-मन है ॥४५॥। अम्बर तज अम्बर-तल थित हो दिग अम्बर नहिं भोत रहें, अम्बर आदिक विषयन से अति विरत रहें, भव भीत रहें । सर्पादिक से धिरे हुए पर अकम्प निक्चल शेल रहें, गोमटेश स्वीकार नमन हो धुलता मन का मैल रहे ॥ ६॥। आशा तुम को छू नहि सकती समदर्शन के शासक हो, जंग के विषयन में वांछा नहि दोष मूल के नाशक हो | भरत-भ्रात में शल्य नहीं अब विगत-राग हो रोष जला, गोमटेश तुम में मम इस विध सतत राग हो, होत चला ॥७॥। काम-धाम से धन-कंचन से सकल संग से दूर हुए, शूर हुए मद मोह-मार कर समता से भर-पूर हुए। एक वर्ष तक एक थान थित निराहार उपवास किये, इसीलिए वस गोमटेश जिन मम मन में अब वास किये ॥८॥। दोहा नेमिचन्द्र गुरु ने किया प्राकृत में गुण-गान, गोमटेश थुति अब किया भाषा-मय सुख खान ॥ १॥। गोमटेश के चरण में नत हो बारंबार, विद्यासागर कब बनूं भवसागर कर पार ॥२॥ ॥ इति शुभं भूयात्‌ ॥। कआशा के तुम पोषक नहि हो समदर्शन के शासक हो ।




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