ज्ञान का विद्या - सागर | Gyan Ka Vidya - Sagar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
399
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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तुम पद-पंकज में अलि बन सुर-पति गण करता गुन-गुन है,
गोमटेश प्रभु के प्रति प्रतिपल वन्दन अपर्ति तन-मन है ॥४५॥।
अम्बर तज अम्बर-तल थित हो दिग अम्बर नहिं भोत रहें,
अम्बर आदिक विषयन से अति विरत रहें, भव भीत रहें ।
सर्पादिक से धिरे हुए पर अकम्प निक्चल शेल रहें,
गोमटेश स्वीकार नमन हो धुलता मन का मैल रहे ॥ ६॥।
आशा तुम को छू नहि सकती समदर्शन के शासक हो,
जंग के विषयन में वांछा नहि दोष मूल के नाशक हो |
भरत-भ्रात में शल्य नहीं अब विगत-राग हो रोष जला,
गोमटेश तुम में मम इस विध सतत राग हो, होत चला ॥७॥।
काम-धाम से धन-कंचन से सकल संग से दूर हुए,
शूर हुए मद मोह-मार कर समता से भर-पूर हुए।
एक वर्ष तक एक थान थित निराहार उपवास किये,
इसीलिए वस गोमटेश जिन मम मन में अब वास किये ॥८॥।
दोहा
नेमिचन्द्र गुरु ने किया प्राकृत में गुण-गान,
गोमटेश थुति अब किया भाषा-मय सुख खान ॥ १॥।
गोमटेश के चरण में नत हो बारंबार,
विद्यासागर कब बनूं भवसागर कर पार ॥२॥
॥ इति शुभं भूयात् ॥।
कआशा के तुम पोषक नहि हो समदर्शन के शासक हो ।
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