बारहवां संस्कार | Barahanva Sanskar

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Barahanva Sanskar by कमलाकांत वर्मा - Kamalakant Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बारदवाँ संस्कार दिखला दूंगा कि में एकदम “बच्चा” नहीं हूँ । संयत भाव से मेंने फहा,, “तो क्या तुमने सुकते एकदम काठ का उल्लू समक रखा हे ?”' “नहीं, नहीं, सो नहीं, में पूछती थी क्या ठुम इतनी मंमट में पड़ना स्वीकार करोगे ??? मेंने कहा, “इसमें कंकट की क्या बात है? लात्रों गिन्नियाँ, मैं अभी तुम्हारा हार ला दूँ ।”” मेंने कहा, “रब लेकिन क्या ? इसका मतलब तो यह है कि तुम्हें सुभकपर विश्वास नहीं है |?” बहुत श्ागा-पीछा करके श्रन्त में मुके गिन्नियाँ देते हुए शकुन्तला ने कहा, “लेकिन देखो, ठगाना नहीं, सोनारों की जात धघोखेवाज होती है। ऐसा न हो कि मेंने शान से कहा, “्रजी, में वकील हूँ कि ठद्ा | श्रगर जरा-सी चोरी करें तो उन्हें सीधे जेल की दवा खिला दूँ******दर नहीं तो क्या ?” और फिर दुकान की शोर चल पड़ा । सोनार अपनी दुकान पर नहीं था | व.हों गया था । श्रादमी भेजकर उसे घुलाया । श्राते दी मुझे देखकर वह विस्मित-सा होकर बोला--“श्ररे बच्चा बाबू ! ऑ्राप किघर से रास्ता भूल पड़े १”? मुझे श्राशचय हुआ कि मेरा नया नाम कया इतना विख्यात्त हो गया है कि पुराना नाम किसी को याद ही न पड़े ! मेंने कहा, “कुछ नहीं, हार के लिए त्राया हूँ ।”” “तो** बाबूजी घर पर नहीं हैं क्या ??” “प्नहीं, देहात गये हैं । हार के लिए. जल्दी थी । में गिन्नियाँ लेकर ्राया हूँ, श्राप तौल कर दाम ले लीजिए |”




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