शूद्रक विरचित मृच्छकटिकम एवं भासरचित दरिद्रचारुदत्तम का तुलनात्मक अध्ययन | Shudrak Virachit Mrichchhakatikam Avam Bhasarachit Daridracharudattam Ka Tulnatmak Adhyayan

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Shudrak Virachit Mrichchhakatikam Avam Bhasarachit Daridracharudattam Ka Tulnatmak Adhyayan  by रेनू सिंह - Renu Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नाटकीय आवरण के लिए हुआ है और अन्तिम चार सामान्य परदे के अर्थ मे। सर्वत्र जकारादि “जवनिका' का ही प्रयोग मिलता है, यकारादि का नहीं। ऐसी दशा मे परदे के अर्थ मे “यवनिका” शब्द का प्रयोग कथमपि न्यायसंगत नहीं प्रतीत होता। एक प्रबल प्रमाण और भी है। “यवनिका” के पक्षपाती भी परदे के अर्थ में “यवनी” शब्द का प्रयोग कथमपि न्याय्य नहीं मानते । 'यवनी' का अर्थ है यवन जाति की ख्री, और इसी अर्थ में इसका प्रयोग कालिदास ने भी किया है (रघु० ४/६१), परन्तु परदे के अर्थ में “जवनिका” के समान *“जवनी” का प्रयोग भी मिलता है और यह होना भी चाहिए, क्योकि वस्तुतः ये दोनो शब्द एक ही धातु से निष्पन्न होते है। “जवनिका' में स्वार्थ कन्‌ की अधिकता है, परन्तु स्वार्थ मे कन्‌ के प्रयोग की सत्ता होने के कारण अर्थ मे तनिक भी अन्तर नही है। श्री गोवर्धनाचार्य ने अपनी विख्यात “आर्या-सप्तशती” मे “जवनी' का प्रयोग परदे के अर्थ में शोभन प्रकार से किया है - ““ब्रीडाप्रसर४ प्रथम तदनु च. रसभावपुष्टचेष्टेयमू । जवनी- विनिर्गमादनु नटीव दयिता मनो हरति। ।”' भारतीय नाट्यकला पर यूनानी प्रभाव का पक्षपाती कोई भी विद्वानू इस आार्या में “जवनी” के स्थान पर “यवनी” का परिवर्तन कभी नहीं कर सकता। यदि “यवनिका” का प्रयोग न्याय्य होता तो परिवर्तन सिद्ध करने में व्याकरण कभी व्याघातक न होता। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि परदे के लिए उचित तथा प्रयुक्त शब्द “जवनिका' ही है, “यवनिका” नहीं । इस झमेले का गूढ़ कारण भी खोजा जा सकता है। राजशेखर का सुप्रसिद्ध “सट्टक' “*कर्पूरमव्जरी* है। समग्र रूप से प्राकृत भाषा में निबद्ध नाटिका को ही *सट्टक' कहते हैं। इस सट्टक के अवान्तर अड्डी के नाम है “जवनिकान्तरमू | मेरी समझ मे इस नाम के सस्कृतीकरण ने ही विद्वानों को भ्रम में डाल दिया है। सट्टक मे सब कुछ प्राकृत भाषा मे है। तब अंक का यह नामकरण भी प्राकृत मे ही निबद्ध होगा, यह कल्पना कुछ अनुचित नहीं है। वररुचि के “आदेयों जः' (प्राकृतप्रकाश) सूत्र




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