रामचरितमानस और साकेत की नारी विषयक अवधारणा का अध्ययन वाल्मीक रामायण के परिप्रेक्ष्य में | Ram Charitamanas Aur Saket Ki Nari Vishayak Avadharana Ka Adhyayn Valmiki Ramayana Ke Pariprekshy Men

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Ram Charitamanas Aur Saket Ki Nari Vishayak Avadharana Ka Adhyayn Valmiki Ramayana Ke Pariprekshy Men  by पंकजेश कुमार शुक्ल - Pankajesh Kumar Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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17] न्याय-वित्तरण की पद्धति वाल्मीकि के समय मे बडी सरल, सस्ती और तात्कालिक थी, क्योकि मुकदमे का फैसला राजा स्वय करता था। वादी-प्रतिवादी उसके पास बेरोक-टोक पहुँच सकते थे। न्याय निष्पक्ष एवं शीघ्र होते तथा कठोर दण्ड के प्रावधान के कारण अपराध बहुत कम होते थे। तत्कालीन न्याय का यह स्पष्ट सिद्धान्त था कि 'निरपराध होने पर भी यदि जिन लोगो को मिथ्या दोष लगाकर दण्ड दिया जाता है, उनकी आँखो से निकले ऑसू पक्षपातपूर्ण शासन करने वाले राजा के पुत्र और धन-धान्य का नाश कर डालते है। यानि मिधथ्याभिशस्ताना पतन्त्यश्रूणि राघव | तानि पुत्र-पशून घ्रन्ति प्रीत्यर्थननुशासत | | न्याय के उक्त सिद्धान्त निम्नलिखित प्रश्नो से स्पष्ट हो जाते है। जो राम ने भरत से चित्रकूट मे पूँछे थे। 'कभी ऐसा तो नहीं कि कोई मनुष्य किसी श्रेष्ठ निर्दोष और शुद्धात्मा पुरूष पर भी दोष लगा दे और शास्त्र ज्ञान मे कुशल विद्धानो से उसके विषय मे विचार कराये बिना ही, लोभ आदि के कारण उसे दड दे दिया जाता हो? प्रजा के सभी वर्ग चाहे नर हो या नारी राजा के समीप उपस्थित होकर अपनी शिकायते रखने का अधिकार उन्हे था। राजा का आसन जिस पर बैठकर वह निर्णय करता था धर्मासन कहलाता था। राम राज्य के उत्कृष्ट स्वरूप का वर्णन वाल्मीकि ने किया है वाल्मीकि राम के समकालीन थे। राम राज्य मे उस समय विधवाओ का विलाप नही सुनाई पडता था। सर्पादि दुष्ट जन्तुओ का भय नही था। रोगो की आशका नहीं थी कोई चोर नहीं था। पाप का कोई स्पर्श नहीं करता था। वृद्धो को बालकों के अन्तेष्टि सस्कार नहीं करने वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग १०० श्लोक ५६ ' वाल्मीकि रामायण अयोंध्याकाण्ड सर्ग १०० श्लोक ५६




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