संस्कृत काव्यशास्त्र में प्रतिपादित कवि का सर्जन पक्ष एक समीक्षा | Sanskrit Kavyashastra Me Pratipadit Kavi Ka Sarjan Paksha-ek Samiksha

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Sanskrit Kavyashastra Me Pratipadit Kavi Ka Sarjan Paksha-ek Samiksha by गया प्रसाद दुबे - Gaya Prasad Dubey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भावयित्री प्रतिभा कवि के परिश्रम तथा अभिप्राय का मूल्यांकन करती है। उसी के आश्रय से कवि का काव्य-व्यापार रूपी वृक्ष फलता है, अन्यथा काव्यवृक्ष बन्ध हो जाता है। कवि और भावक दोनो की प्रतिभा से काव्य पूर्ण होता है।' आचार्य मम्मट ने सहदय के लिए “प्रतिभाजुष' शब्द का प्रयोग किया है। इस पद की व्याख्या मे “काव्यप्रदीपकार' का कहना है कि '“व्यड्गयार्थ की प्रतीति प्रतिभावानो को ही होती है। प्रतिभा को वासना भी कहते है। सहदय अपनी वासना के बल से ही काव्यार्थ रूपी समुद्र में अवगाहन कर रसरूप मोती का अन्वेषण करता है, जिसकी प्राप्ति होने पर वह आह्लादित हो उठता है। सहदय नाटक के श्रवण मात्र से आनन्द की अनुभूति कर लेता है। वर्णनीयतन्मयीभवनयोग्यता के क्षण मे उसकी चित्तदशा और कवि की चित्तद्शा का अन्तर मिट जाता है। उसके चित्त की संकोच परिधि टूट जाती है। स्व-पर भाव विगलित हो जाता है, तथा वेद्यान्‍्तरसम्पर्वशून्य होकर वह काव्यजगत्‌ मे तललीन हो, कवि भावों मे निमग्न होकर रसास्वादन करता है। हृदय की यह योग्यता एक-दो दिन मे. नहीं आती हे. तर्दर्थ काव्यानुशीलनात्मक अभ्यास अपेक्षित है और वह इस अभ्यास मे कालगत 'दघू्य' और '“नैरन्त्य' होना चाहिए,” परन्तु अभिनवगुप्त के मत मे अभ्यास '..... वक्तप्रतिपतृप्रत्भिसहकारित्व॑ हि अस्माभिः द्योतनस्य प्राणत्वेनोक्तम्‌ । - ध्वन्यालोक लोचन, पृ० १९ *.... काव्यप्रकाश तृतीय उल्लास कारिका २१, सू० ३७ *...... प्रतिभाजुषामित्यनेन नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा प्रतिभा। या वासना इत्युच्यते। - काव्यप्रदीप, पृ० ४९ योगदर्शन पतझ्लि सं० १४




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