विज्ञान परिषद , प्रयाग का मुख पत्र [1654 ,अक्टूबर ] | Vigyan Parishad Ka Mukh Patra[ 1654 , October]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्छ रसायनिक क्रियाओं द्वारा निकाली जाती है। यह एक दब्य-विशेष है जो आँखों में डाल दिया जाता है जहां पर यह ॒पुतली को कतिपय परीक्षाओं के लिये विस्तृत कर देता है । न रासायनिकों ने कीटारु-विनाशक पदाथ ( क70- उ6[05 ) तैयार कर, चिकित्सकों को. बहुत सहायता पहुँचाई है । यह आन्तरिक तथा वाह्य-दोनों ही प्रकारों से प्रयुक्त किये जाते हैं । .पास्ट्र तथा लिस्टर के काल सें, जिन्होंने कि अनेक विषले कीटाणुओं तथा तज्ञसित रोगों पर बहुत खोजें की हैं, अनेक कीटाराुु- विनाशक पदाथ तैयार हो चुके हैं । कॉरोसिव-सब्जि- मेट ( 6ण'0अप6 80106 ) फिनॉल ( 00०00] जिसको कि बहुधा कॉरबोलिकं. ऐडिस कहते हू ), इड्रोजन पैगक्साइड ( फिफुेश्०88, फ8/0ज्ांते6 ) तथा एल्कोहोल ( 10000! ) या सद्यसार इनमें मुख्य हैं ।. कॉरोसिव सब्ज्मिट तथा फिनोल इतने अधिक विषेले हैं कि वे खाये नहीं जा सकते । यद्यपि मद्यसार का प्रयोग विंस्की तथा जिन ( छाए, ) के रूप में होता हे तथापि वह विषला है । इन द्रव्यों में मद्यसार निविष्ट दशा ( ००0००ाएसक900 59916 ) में उपस्थित है। आाँयोडीन (10006 ) का प्रयोग मद्यसारिक घोल ( क601006 801पिंणएा ) में जिसे टिन्कचर : झॉफ. झॉयोडीन _ ( 0५6 0. 10006 ) कहते हैं होता है । आयडोफाम ( 1060१ बहिगंत-कीटारु-विनाशक (6शिएाका छाए 5600) _ के रूप में प्रयुक्त होता है । कुछ वर्षो से मरक्यूरोक्रोम ( आ्6ा/0पत0010707006 ) तथा. बेन्जाइल रिसोरसिनोल ( 0880 लंक01 ) भी इसी काय के लिए प्रयोग किये जाने लगे . किन्तु चिकित्सकों को : ब्यावश्यकता थी एक ऐसे कीटारु-बिनाशक की जो कि खाया जा सके तथा जो शर्रीर में प्रवेश कर गुर, मुत्नाशय तथा रक्त के कीटाणुदं को मार सके ! यह एक कठिन समस्या थी. क्योंकि . इसके लिये अपेक्षा थी एक ऐसी वंस्तु के झाविष्कार की जो हलकी दशा (ठं10666. 59816) में इतनी विषली तो हो कि कीटाणुओं का विनाश कर विशञान [ अक्टूबर सके किन्तु इतनी अधिक भी न हो कि जीवन ही समाप्त कर दे। जहाँ तक मूत्राशय का सम्बन्ध हे दैक्साइल - रिसौरसिनौल . ( ॥७इफु!#०50एएॉ०01 ) काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है। यह पदाथ रसायनिकों के अथक धेय का उज्ज्वल. उदाहरण है। इन्होंने अपनी 'अविश्नांत 'खोजों के उपरांत यह जान लिया हे किसी भूल तत्वों के समुदाय-विशेष ( 8 ०ण ) के क्या कया शुण हैं। इन्होंने पाया कि रिसौर्सिनोल में समस्त 'झावश्यक गुणों का अभाव है आओर सोचा कि यह अभाव छः काबन के हैक्साइल-समुदाय ( ०४1 श0पफू 0 डा 0क्षापणा एड) को रिसोरसिनोल में मिला देने से दूर हो जावेगा । ऐसा ही किया गया गौर जो सम्मिश्रित. पदाथ बना . उसमें पिये जाने वाले कोटारतु-विनाशक (एए6िएएक्री, ाएपिंड0ि0 के समस्त उपयोगी तथा झावश्यक गुण थे । अन्वगंत छूत की बीमारियों के लिए कुछ सजीव रंग (07887070 तेफु७3 ) लैसे क्रीफ्लेबिन ( 8०.४1 ) तथा जेनी- शियन-वायलेट ( छु6ाक्रा. 016 ) प्रयोग किये जा रहे हैं। . नुष्य को कष्ट देने वाले रोगों में उपदंश का भी प्रमुख स्थान हे । गणना के उपरांत पता चला है कि संसार के पागलों का चतुथाश उपदंश क ही कारण विक्वत-मस्तिंष्क होता है । बहुत से बच्चे या तो मरे ही हुये पैदा होते हैं या विकलाँग होते हैं. क्योंकि उनके _ माता अथवा पिता में से किसी को उपदंश होता है । इस रोग की उत्पत्ति का कारण एक जन्तु-जगत का सॉप् ( फूआए8 1० ) कीटाणणु होता दे। ऐलिरिख तथा उसके सहकारियों ने आर्सेनिक ( #705०७0० ) का एक सम्मिश्रित पदाथ बनाया जिसको श्मार्सेनोफेमीन ( 8870]: 60प06 ) -कहते हैं । यह झार्सेनिक ( भए80एएं० ) का ६०६ वां पदाथ होने कारण “६०६” के नाम से पुकारा जाने लगा । इस औषधि का अविष्कार अपने लो ऋ-कल्याणकारी परिमाणों के कारण संश्लिष्ट रसायन-शाख््र के क्ेत्र में एक उज्ज्वल तथा उच्च स्थान का अधिकारी है । कर चदडलकरिन च्क




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