इतिहास और परम्परा | Etihas Aur Prampara

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Etihas Aur Prampara by डॉ. राजमल बोरा - Dr. Rajmal Bora

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Dr. Rajmal bora

hindi books author , assistant professor in 1960 approximately 1970.
completed first ph.d in the  hindi department of  sri venkateswara Andhra pradesh state university, Tirupati.

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इतिहासकार रामचद्र शुक्ल 1 य 6 शुषलजी वी अतर्यात्रा शुक्लजी के इतिहास में शुक्लजी की अतर्याता है । व्यवित रूप मे शुक्लजी इतिहास लिखते समय साहित्यिक जगत की याथा करते रहे हूं । उनवी यह याना साहित्यिक विवेक के सदभ मे होती रही है। इस यात्रा का प्रयोजन साहित्यिक पुनरुस्यान है। हिंदी साहित्य को स्वायत्तता प्रदान करने हेतु शुकलजी नें भुनरुत्यान का यह काम किया । साहित्य के पाइचात्य चितन से परिचित रहते हुए भी शुकलजी ने अपना विवेक जागय्रत रखा गौर इतिहास लेखन को पाइ्चात्य विचारों से मुक्त रखकर भारतीय विचारों को हो समकालीन सदभ मे [तीसरे दराक के] व्यक्त क्या । 17 अक्तूबर 1939 के एक भाषण में आचाय शुक्ल वहूते हैं-- कर “आप इसमें साहित्य सम्बाघनी स्वत मता का ऐसा भाव जगा दें मिं हम थोरप में हर एक उठी हुई वात की ओर लपकना छोड़ दें, समभ- द्रूमकर उठी बातो को ग्रहण करें जिनका कुछ स्थायी मुल्य हो, जो हमारी परिस्थिति के भनुकूल हो। योरप की दशा तो आजकल यह हो रही है कि वहा जीवन के हर एक विधान से उसे धारण करने वाला शाइ्वंत तत्व निकालता जा रहा है। क्या राजनीति क्या समाज, क्या साहित्य सब डगमगा रहे है। रूस के वोल्दीविको वी बात सुनिए ता वे बडी उपेक्षा से अब तक के सारे साहित्य को ऊँचे वग के लोगा का साहित्य बताकर बढ़ैयो, लोह्ारो और मजदूरा के साहित्य का आसरा देखने वो कहूंगे। जमनी की जोर दृष्टि दौडाइए तो वहा क्रेवल नात्सी सिद्धाती का समधक साहित्य ही सिर उठा सकता है । फ्रायड साहय अभी मरे है जिनकी समक में स्वप्न भी हमारी अतृप्त चासनाया के तृप्तिविधान के छायामय रूप हैं और काव्यादि क्लाए भी हमारी अतप्त कामवासनाओं की तुष्ति के विधान हैं । अब हमारे समभने की बात यह है कि क्या हमे इन सब बातो को ज्यो वान्त्यो लेते हुए अपने साहित्य का निर्माण करते चलना चाहिए अथवा ससार के भिन भिन देशों की भिन्न सिने प्रवत्तियो की समीक्षा करते हुए अपनी बाह्य गौर आम्यतर परिस्थिति के अनुसार उसके लिए स्वतत्र माग निकालते रहना चाहिए !”6 स्पष्ट है कि. धुक्लजी हिंदी साहित्य को परिचमी प्रभावों से मुक्त रखना चाहते थे ! 'पुक्तजी की साहित्य जगत वी यह अतर्यात्रा भारतीय मानस की पह- चान कराने मे समय है। साहित्य के इतिहास के माध्यम से उदहोंने हिदी साहित्य को स्वतत रूप देने का प्रयत्न क्या है। हिंदी साहित्य की यह पहचान आज भी हमे विचारोत्तेजक और बलवान प्रतीत होती है। जो |




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