दो विद्यार्थीयों का संवाद | Do Vidyarthiyon Ka Sanwad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(न्द$ गुना 'अधिक मिलता है । मैं कंई दिनों से इस वात का 'अनुभव कर रहा हूँ कि अपने नगर'के पास में एक बढ़ा छात्रावास दो जहां पर सुयोग्य विद्यार्थी शिक्षा पाकर श्रपना 'और छापने देश का सुधार करें. ! हैँ १ वोघचन्द्-” नहीं मालूम छापको। देश सुधार की इतनी चिन्ता क्यों लगी है, न मालुम ये दूसरोंके पुत्र पढ़कर 'झापके किस काम 'ार्विंगे १ विधानेंद-“ मित्र शायद तुम्दें यह मालूम नहीं है कि 'मपन लोग सदा स्वार्थ दी की बातें सोचा करते हैं । मेण हो ऐसा विश्वास है कि परसार्थ जैसा 'र कोई कार्य दुनियों में करने योग्य ही नहीं दै। ऐसे सावजनिक कार्यों से इस लोक और परकोक दोनों में लाम ही लाभ है ।'ऐसा कौन डुर्मभागी होगा जो द्रव्य प्राप्त फर के भी ऐसे परोपकारी कायें में ब्यय न करे । ?




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