गुरुकुल - पत्रिका | Gurukul - Patrika

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Gurukul - Patrika by रामेश वेदी - Ramesh Bedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उत्तिष्ठत जाग्रत , गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर उन्तिप्ठत, बाय्रत ! उठो, जागो ! प्रभात में ईश्वर का प्रकाश श्राकर हमारी ऊघ को उड़ा देता है। समस्त रात्रि को गहरी निद्रा एक पल में चली जाती दें । परन्तु सन्थ्या वेला के उठ मोह को कौन भगायेगा 7 समस्त दिवस के विचारों श्र कमों से हमारे चहुँ श्रार जा एक प्रकार की धूमिलता छा जात दे, उसे मुक्क हो कर चित्त को निमल ओर उदार शाति में किस प्रकार स्थापित करेंगे 7 इतना बढ़ा दिवस एक. पकड़ें का तरह श्रपना जाल विस्तृत करता दुश्रा, हमें चार! ओर से फसा रहा हैं | चिरत्तन को भूना की श्रपना छाया द्वारा श्रादृत कर रहा है। इस समल जाल के विस्तार का तोड़ कर के, हमें श्रपना चेतना को सजग करना चाहिए । सब के उठने का, जागने का समय हो गया हे जिस समय दिवस श्रनेक क्यों, विविध विचारों और नाना प्रकृतियां द्वारा हमें चक्र पर चढ़ा रहा होता है, जब वह निखिल विश्व श्रोर इमारे श्रात्मा है, बह नहुत दूर श्रागे है, वदद जहुत दूर श्रागे हे । ईश्वर की कृपा से इम उद्दिष्टि स्थान पर पहुँच सकें-तथयाइस्तु, पववमइंतु वर्नया सबंतों मंगल विभावत्‌ जे के बीच में एक प्रकार का आवरण स्वढ़ा कर देत' हे तब यदि हम श्रपनी चेतना को बारम्बार “तत्तिष्ठत, जायत' कद कर के उद्बोधित न करें, यदि इस जागरण के मन्त्र को, व्यावद्दारिक कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी प्रतिपल्र अ्रपने श्रस्तरात्मा से ध्वनित न करें तो फिर एक के बाद दूसरे चक्कर में, एक के बाद दूमरे नाल में इम श्रवश्य फंस जायगे। फिर तो. उस तमस._.. में से, उस लड़ता में से, नाहर निक- लने की इच्छा तक दम में नहीं जागेगी । फल्नतः श्रासपास की परिस्थिति को दस श्रस्यन्त सत्य रूप में मान लगे श्रौर उस से भी परे जा उन्मुक्त. बिशुद्ध श्र शाश्वत सत्य विद्यमान है, उस के प्रति इमारा विश्वास नहीं रहेगा। श्र सब से विचित्र बात नो यह होगी कि उस सत्य के प्रति संशय श्रतुभव करने जितनी सजगता भा हम मे से निकन्न जायगी । इस लिए जब समस्त दिवस के श्रनेक विश्व कर्मों का कॉलाइल मच रददा हो, तंत्र श्रपने मन की गम्मौरता मे 'डिठो, जागो” की ध्वनि श्रस्खलित रूप में उठती रहे, यही प्राथना है !! मंगलेशः । कक [ गुरुकुल विश्ववद्यालय कांगडढ़ी के ४२ व वार्षिक मददात्सव के श्रवसर पर वेद सम्मेलन स दिये गये श्र नरदेव शाख्री, वेदर्तीय के भाषण का सार ] पन्द्रहद




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