धर्मरत्न प्रकरण भाग - 2 | Dharmaratn Prakaran Bhag - 2

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Dharmaratn Prakaran Bhag - 2 by मुनि लाभसागर - Muni Labhasagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुददन सेठ की कंथा ७ लिवर दि सकल जंतुओं को त्राण करने में समथ है. प्रताप गुण जिनका और तीनां जगत्‌ के लोगों ने नमन क्रिया है चरणों का जिनके, ऐसे वीर प्रभु ही मेरे आधार हू । यह कहकर यह सागारी अनशन करके सबे जीवों को खमाने लगा । उसने अपने दुष्कतों की नि! की तथा समस्त सुझतों की अनुमोरना की | उसने चिस्तबन किया कि; जो मैं इस उपसग से मुक्त हो जाऊ'गा तो कायोत्सगं पारूगा यह सोच व काग्रोत्सग कर नवकार का ध्यान करने लगां । अब यक्ष मुदूगर को उछालता हुआ उस पर आक्रमण करने में असमयथे होकर: डझास्त हो; निर्निमेप दृष्टि से उसे देखता हुआ क्षणमर वहाँ स्तंभित हो गया । पश्चात बह यक्ष अपना मुदूगरं ले उसके शरीर में से निकलकर अपने स्थान को चला गया, तब कटे हुए वृक्ष के समान अजु नमाली भूमि पर गिर पड़ा । तब उपसभ दूर हुआ जानकर सुदद्न सेठ ने कायोत्सग पूर्ण किया इतने मैं अजुं न- माली-को भी चेत हुआः.तो बह सुन. सेठ से इस भांति कहने लगा । तू कौन हे ? और कहां जाता हैं ! तब सुदद्दीन सेठ वोला कि-मैं श्रावक हूँ और वीर प्रभु को नमन करने तथा धर्म कथा सुनने को जा रहा हूँ । तब . अजुनमाली वोला कि- हे सेठ ! तेरे साथ चठकर मैं .भी उक्त जिन को नमन करना तथा घ्म सुनना चाहता हूँ । हे भद्र ! लिन वंदन और घर्स कथा का श्रवण करना यही इस ,मजुष्य जन्म का उत्तम फल हें । थद कद उसे संग ले सुदरन सेठ ने समोसरण में आ पांच अभिगम पूवक प्रयत होकर जिनेश्वर को चन्दना की । वह हर्पाश्र से परिपूर्ण-नेत्र तथा विकसित-मुख हो, हाथ जोड़, शुद्ध अन्तः करण से भक्ति व बहुमान पूचक इस प्रकार प्रभु की देशना सुनने छगा । यथा-




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