पृथ्वी से सप्तऋषि मंडल | Prathvi Se Saptarishi Mandal

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Prathvi Se Saptarishi Mandal by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र बोच में एक अवान्तर ग्रह हैँ। है तो बहुत छोटा सा पिंड पर जसकी सस्कृति बडी ऊंची हूँ। यह लोग इसके पहिले भी दानि प्रान्त में आ चुके थे पर आज वह अधिक प्रिय ठग रहा था । इनके लिए वह सुपरिचित सौरमडल और अपनी पृथ्वी का प्रतीक वन गया था। सूर्य २ करोड ३२ लाख कोस दूर था। उससे यहुत कम गर्मी मिल रही थी। उसवा पीला क्लेवर प्रकाश भी कम दे रहा था, फिर भी देखने में प्यारा लगता था । टाइटन के होटल के बाग में चीड देवदार के सजातीय जो वृक्ष थे उनको कत्पना ने मखमल का चादर ओढा दिया था । सब्या हुई। सबल्य दि उदय हुआ । ऐसा प्रतीत होता हैं कि प्रहति ने इस ग्रह को तीन लडो की रत्नमेखला पहिना दी हूं । उस दिन टाइटन के मतिरिकत चार चन्द्रमा क्षितिज के ऊपर थे। शनि पर से मेसला में ते फिरते हीरो से लग रहे होगे। सूर्य्य की दूरी ने अंधेरे को घना बना दिया था. पर मेखला के असख्य कणों से टकराकर झीना प्रकाश भी आकाश को अदुमुत सौन्दर्य दे रहा था। हम पृथिवी पर से उसका अनु- मान नहीं कर सकते । होटल में पूृथिवी जैसा भोजन सिला। इसके आगे ने जानें क्तिनें दिनो के लिए दिन में भरे खानो से ही काम चलाना था। बारखाने के इजिनियर ने जहाज को देखा। उसमें कोई खरावी न थी। पुथियी के लिए अन्तिम निमूत्र सत्देश मेजा गया और ट्ुसरे दिन मश्त्वानू निप्पप गगन में उतर पड़ा। टाइटनस्थित पाधिवो के मूता शादीर्वादि उसवे साय थे। जहाज या मुंह चित्रा वी सोर था ।




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