भारतीय साधना | Bhartiya Sadhna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मारतीय साधना और उसकी विश्ञेषताये देवी भाव.श्रासुर भावों पर विजय प्राप्त करें, मानव की श्रघोगामिनी प्रशत्ति ऊपर उठकर श्रालोक में विचस्ण करने लगे, दुख 'दग्घ हों श्रौर सुख एबं 'शान्ति का प्रसार हो--ऐसी कामना प्रायः अ्रत्येक संस्कृत मानव में होती है । पार्थिवता से प्रथकू होकर दिव्यता की श्रोर, श्रत्त्‌ से हट कर सत्‌ की श्रोर, तम से ज्योति तथा मृत्यु से श्रम्रत की श्रोर चलना सभी चाहते हैं। यह कामना सबके श्रन्दर विद्यमान है, पर कोई कामना निप्ठा-संवलित प्रयत्न के श्रभाव .में कभी सफल नहीं होती । वलवती चेप्टायें, प्रवल प्रेर्णायें, श्रनवरत श्रभ्यास जब श्रांत- रिक संस्कारों को दृढ़ कर देते हैं, तभी यह कामना उस श्रोर प्रयाण करती दै श्रौर गन्तव्य भूमिका की ऋलक दिखाई देने लगती है । पार्थिवता की श्रनुसूति प्रायः सभी उन्नत प्राणियों के छृदयों में रहती है । उसके दुखद परिणामों से भी हम सब परिचित हैं । दिव्यता का श्रनुमव सबकी नहीं, कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की ही सम्पत्ति है श्रौर इसी हेठ उससे उद्भूत श्रानन्द भी सबके भाग्य की वस्तु नहीं है । जो वस्तु प्रतिदिन सामने श्राती है, उसे छोड़कर श्रज्ञात एवं श्रननुभूत वस्तु की श्रोर दौड़ लगाना कुछ विरले संस्कार- सम्पन्न साघकों का ही काम है । इसी कारण दुख से दूर रह कर सुख की कामना करते हुए भी, हम श्रघिकांश निर्व्र मानव उधर चलने मैं श्रसमयथं हो जाते हैं । भारतीय ऋषि परमार्थ-प्रिय थे । वे परोक्ष से प्रेम करते थे; अत्यक्त से नहीं । परोत्त लिंद्ध हो गया, तो प्रत्यक्ष श्रपने श्राप वन लायगा | अतः वे श्रन्त- सुखी बनकर प्रत्यक्ष से परोक्ष की श्रोर चलते थे । ज़ायत अवस्था के झन्नमय तथा मराशमय-कोपों को छोड़ कर वे चिति के सहारे स्वप्ावस्था के मनोसय-कोप




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