काव्य सम्प्रदाय | Kavya Sampraday

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(८) (४) शनेक वाद ऐसे भी हूँ जो विदेशी '्म्रालोचना-क्षेत्' से यहाँ झ्राकर श्रम्यागत रूप में उपस्थित हैं । उनकी उपस्थिति से हमारे श्रालो- 'चना-साहित्य की दोभा वढी है । अलखुतर-शास्त्र के श्रव्ययन का महत्व वया है श्रौर उसके द्वारा किस लक्ष्य की पूर्ति छोती है, यह भी विचारणीय है । “हमारे यहाँ सभी कुछ है' की प्रवृत्ति जिस तरह कूपमण्डूकता की जन्मदात्री है, उसी तरह 'चिलायत के नित्य-नवीन जन्म लेने वाले फदनात्मक सिद्धान्ताभास भी जिज्ञासु को 'भ्राकाशा-वेल' बनाने के लिए काफो हैं । झावशष्यकता इस वात की है कि तके-सगत विवेचन के सहारे विचारों की पारस्परिक तुलना, उनका साम्य नैषम्य के शभ्राधार पर वर्गीकरण श्रौर तदनन्तर सासक नियमों का उद्घाटन कर सकने की विद्लेषणात्मक क्षमता का उदय हो, ताकि सिद्धान्तो के वैज्ञानिक प्रत्यक्षीकरण का मारे प्रदस्त होता रहे। यह सब, उधथले श्र म्रम।ाण-पत्र-प्रदायक परीक्षा-पास- मा्ात्मक श्रध्ययन से न हो सकेगा । डा० देवराज के भ्रघोलिखित अभिमत से सहमत होते हुए हमारी कामना है कि यह तुच्छ प्रयास साहित्य के सतुलित श्रघ्ययन में सरकृत-द्विन्दी के छात्रो व जिज्ञासुप्रो को सहायक हो । इसी में हमारे श्रम की सफलता है-- “जो व्यक्ति काव्य-साहित्य का रस अदण कर सकता है, उसे हम भावुक या सहदय कहते है । .. यदि पाठकों श्औौर भावी श्याल्योचर्कों की रस-मादइियी शक्ति का स्वाभाविक रूप से विकास दो, तो सम्मवतः उसकी इतनी कमी, उसमें इ्नना विकार, न दो । किन्तु चस्तुस्थिति यदद है कि हमारी काव्यामिर्रचि का विकास कान्य-शास्त्र-सम्बन्घी मत्मतान्तरों के बीच होता है। हमारे शिक्षकों का उद्देश्य धमारी काव्यशास्त्र की रस श्र करने को शक्ति को प्रचुद्ध धर पुप्ट करना नहीं, अपितु कुछ विशिष्ट झाल्लोचना-प्रकारों से परिचित कराकर परीक्षा में




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