पृथ्वीराज रासो भाग २ | Prathviraj Raso Bhag Ii

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Prathviraj Raso Bhag Ii by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काव्य-सौष्ठव ७ उतना ही सफल होता है । कवि सानव अकृति के साथ दही साथ वाद्य प्रकृति का कुशल वर्णन कर अपने काव्य की उत्कृष्टता में वृद्धि करता है । मुख्यतया प्रकृति- वर्णन दो रूप मे किया जाता है--( १ ) आलंबन रूप में, (२) उद्दीपन रूप में ! इन दोनों प्रकार के वर्णनों से ऋतु वर्णन का भी मुख्य स्थान होता है । महदाकवि चन्द ने वीरोचित्‌ सानव प्रकृति का तो सांगोर्पाग वन किया है; किन्तु रासो (द्वि० भा०) में वाह्य प्रकृति का आलम्वन के रूप मे दर्शन प्राय नद्दीं ही होता है । यत्रतत्र उद्दीपन के रुप से वर्खन अवश्य मिलता हे । यथा--शशिव्रता समय के प्रारम्भ में श्रीष्म का व्णन-- लग्गि सीत कल मंद, नीर निकट सु रजत घट । झझमित सुरंग सुगंध, तनदद उबटंत रजत पट ॥ मलय चन्दू मल्लिका, घाम-घारा-य्रह सुव्वर । रजि विएन वाटिका, सीत द्रम छांद रजति तर ॥। पावस के ्ागमन पर श्रोतानुरागी प्रथ्वीराज के कामोददीपन से बद्धि दो जाती है. 'और उसे प्रतिक्तिण शशिव्रता का स्मरण हो शाता है-- मोर सोर चिहूँ-ओर,, घटा -आसाढ़ - बंवि नभ | बच दाढुर मिंगुरन, रटत -्वातिग रजत सुस ॥। नील बरन वसुमतिय, पद्दरिं छाश्रन श्लकिय । इ द्र-वघू सिर-व्यद, धरे वसुमती सुरज्जिय ॥। वरखत बूद घन मेघ सर, तब सुमरे जद्व छुारि । नन हस धीर धीरज सुतन, इख फुट्टी मनमथ्य करि ॥। पावस के वीतने पर शरदू का झागमन हुआ । आकाश इस अकार स्पच्छ दो गया; जेसे सद्गुरु के ज्ञान द्वारा आत्मद्शन (आआत्म-वोध) से हृदय निर्मल हो जाता है- गत पावस श्यागम शरद, गई शुडल नभ सान । (व्दों)सपुरु मिलि अंदर द्रस, मिलि प्रकटे गुरु ज्ञान ॥। मागों का पक सूख गया; सरिताओं का प्रवाह सूदम होगया,; लताएं कुम्दला गई और मेघ रहित प्रथ्वी पति हीन स्त्री के सदश दिखाई देने लगी--




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