चिकित्सा तत्व प्रदीप | Chikitsa Tatva Pradeep

Chikitsa Tatva Pradeep by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आयुर्वेदके मूल द्रव्य-त्रिदोष सवार हो जाते हैं । जो सीज्दार मकानमें रहनेव्राले और खाने-पीनेमें स्वछन्दी महु्य हैं; वे जीवाएुजन्य रोपोंके अधिक शिकार वनते हैं| ः इन रोगोमें अनेक रोग वास्यावस्थामें, अनेक युवावस्थामें, और अनेक धरद्वावस्थामें लागू होते हैं और कतिगय रोग खियोंको और पुरुषोको अधिक पसन्द करते हर । कितने हो रोग स्त्री, पुरुप; बालक; युवा; घृद्ध इन स्रपर समभ्गवसे आक्रमण करते हैं । मसूरिका रोमान्तिका, काली खांसी;ये रोग वाल्यावस्थामें अधिकतर प्रतीत होते तथा बड़े मनु योको कचित्‌ प्राप्त होते है । कतिंपय जातिके जीवारुुओंके आक्रमणसे बचने केलिये उन जीवाणुओं के बिप द्रन्य झा अन्तः्त्तेपण करानेका नूतन रिवाज चला है । जैसे शीतला, विसू- चिका, विषम ज्वर आ।दिके लिये कितने दही अन्त.क्षेपण (इज कशन) रोगावस्था में रोगको नष्ट करनेकेंलिये बनाये हैं । उदाहरणाथ कालज्चर, विपमज्यर कएठरोहिसी, परिवर्तितज्वर, श्वसनक उ्चर और फिर रोग आदि । इन सब विशेष ओवधिसे (अन्त क्षेपणस) लाभ होने पर भी भीन विपसंप्रइ होता है या नहीं; और जीवनीय शक्तिको कितनी हानि पहुँचती है यह निणुंय करना शेप है। यदि रोग परीक्षा भूलवाली है, या शक्तिका विचार नहीं किया जाता;तो इन अन्त-क्षेपणकी औपधियोंसे भयंकर हद्वानि पहुँच जाती है । इन सब रोगोंपर आयुर्वेदिक औषधियों सर्वत्र सुलभ हैं । दानिका लेशमात्र भय नहीं है । परीक्षामें भूल होनेपर भी प्रवल हानि नहीं होती । जीवनीय शक्तिको सबल बनाती हैं; ताकि राग निदनत होनेपर पुन रोगाक्रमणका भय नहीं रहता | चिकित्सा पद्धति । चिकित्सा फिसे कहना; इस विषयमें भगवान्‌ आत्र यने कहा है; कि:-- याभिः क्रियाभिजायन्ते शरीरे घातवः समाः | सा चिकित्सा दिकाराणां कम तद्धिजिजां स्सृतम्‌ ॥ मिथ्या आहार-विहारसे शरीरमें रहे हुए वात; पित्त, और कफ धातुओंमें उत्पन्न हुई जिन क्रियाओं द्वारा दूर होकर सम।नताकों शभ्राप्त हो; वह चिकित्सा कहलाती है और चिकित्सकोंका वही कमें माना गया है । इस चिकित्साके दोषप्रत्यतनीक और न्याधिप्रत्यनीक, यें २ विभाग हैं । ( १) दोष प्रयतनीक चिकित्सा!--प्रत्यनीक अ्थोंनू विरुद्ध । दा आदि दूपित घातुओंके न्यूनाघिक लक्षणोंगर विचार कर दू।पित घातुओंकों सम स्थिति में लाने वाली औषधियोंके उपचार और क्रियाऑंको दोपप्रत्यनीक चिकित्सा कहते हैं । रोगोके बाह्य लक्षणों पर विशेत्र लक्ष्य न देकर जिस दोपम्रकोपस राग जौर लक्षणोंकी उत्पत्ति हुई .ढो, उस मूल देतुके विरुद चिकित्सा करनस




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