चिकित्सा तत्व प्रदीप | Chikitsa Tatva Pradeep
श्रेणी : आयुर्वेद / Ayurveda, स्वास्थ्य / Health
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
34.25 MB
कुल पष्ठ :
794
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आयुर्वेदके मूल द्रव्य-त्रिदोष
सवार हो जाते हैं । जो सीज्दार मकानमें रहनेव्राले और खाने-पीनेमें स्वछन्दी
महु्य हैं; वे जीवाएुजन्य रोपोंके अधिक शिकार वनते हैं| ः
इन रोगोमें अनेक रोग वास्यावस्थामें, अनेक युवावस्थामें,
और अनेक धरद्वावस्थामें लागू होते हैं और कतिगय रोग खियोंको और
पुरुषोको अधिक पसन्द करते हर । कितने हो रोग स्त्री, पुरुप; बालक; युवा; घृद्ध
इन स्रपर समभ्गवसे आक्रमण करते हैं । मसूरिका रोमान्तिका, काली खांसी;ये
रोग वाल्यावस्थामें अधिकतर प्रतीत होते तथा बड़े मनु योको कचित् प्राप्त होते है ।
कतिंपय जातिके जीवारुुओंके आक्रमणसे बचने केलिये उन जीवाणुओं के
बिप द्रन्य झा अन्तः्त्तेपण करानेका नूतन रिवाज चला है । जैसे शीतला, विसू-
चिका, विषम ज्वर आ।दिके लिये कितने दही अन्त.क्षेपण (इज कशन) रोगावस्था
में रोगको नष्ट करनेकेंलिये बनाये हैं । उदाहरणाथ कालज्चर, विपमज्यर
कएठरोहिसी, परिवर्तितज्वर, श्वसनक उ्चर
और फिर रोग आदि । इन सब विशेष ओवधिसे (अन्त क्षेपणस) लाभ होने
पर भी भीन विपसंप्रइ होता है या नहीं; और जीवनीय शक्तिको कितनी हानि
पहुँचती है यह निणुंय करना शेप है। यदि रोग परीक्षा भूलवाली है,
या शक्तिका विचार नहीं किया जाता;तो इन अन्त-क्षेपणकी औपधियोंसे भयंकर
हद्वानि पहुँच जाती है ।
इन सब रोगोंपर आयुर्वेदिक औषधियों सर्वत्र सुलभ हैं । दानिका लेशमात्र
भय नहीं है । परीक्षामें भूल होनेपर भी प्रवल हानि नहीं होती । जीवनीय शक्तिको
सबल बनाती हैं; ताकि राग निदनत होनेपर पुन रोगाक्रमणका भय नहीं रहता |
चिकित्सा पद्धति ।
चिकित्सा फिसे कहना; इस विषयमें भगवान् आत्र यने कहा है; कि:--
याभिः क्रियाभिजायन्ते शरीरे घातवः समाः |
सा चिकित्सा दिकाराणां कम तद्धिजिजां स्सृतम् ॥
मिथ्या आहार-विहारसे शरीरमें रहे हुए वात; पित्त, और कफ धातुओंमें
उत्पन्न हुई जिन क्रियाओं द्वारा दूर होकर सम।नताकों शभ्राप्त हो; वह
चिकित्सा कहलाती है और चिकित्सकोंका वही कमें माना गया है ।
इस चिकित्साके दोषप्रत्यतनीक और न्याधिप्रत्यनीक, यें २ विभाग हैं ।
( १) दोष प्रयतनीक चिकित्सा!--प्रत्यनीक अ्थोंनू विरुद्ध । दा आदि
दूपित घातुओंके न्यूनाघिक लक्षणोंगर विचार कर दू।पित घातुओंकों सम स्थिति
में लाने वाली औषधियोंके उपचार और क्रियाऑंको दोपप्रत्यनीक चिकित्सा
कहते हैं । रोगोके बाह्य लक्षणों पर विशेत्र लक्ष्य न देकर जिस दोपम्रकोपस राग
जौर लक्षणोंकी उत्पत्ति हुई .ढो, उस मूल देतुके विरुद चिकित्सा करनस
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