मालवी लोकगीत | Malavi Lokgit

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Malavi Lokgit by चिंतामणि उपाध्याय - Chintamani Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९ ) के निर्माण की प्रथम एवं श्रावश्यक स्थिति है । लोकभावना जहाँ सभ्यतागत मिथ्या श्राउभ्बरों ग्रौर बन्धनों की चिन्ता नहीं करती, वहाँ श्रभिव्यक्ति-संबंधी भाषा एवं छन्द के शास्त्रीय नियमों के बन्धनों की श्रोर ध्यान देने की चेष्टा होगी, वह श्राप करता भी व्यर्थ है। लोकगीतो के सम्बन्ध मे दिये गये विभिन्न विचारों के मन्थन से परिभाषा का निर्धारण किया जा सकता है । संक्षिप्त में लोकगोत की परिभाषा यही हों सकती हैः-- *' सामान्य लोकजीवन की पाइव भूमि में श्रचिन्त्य रूप से श्रनायास ही फूट पड़नेवाली मनोभावों की लयात्सक श्रभिव्यक्ति लोकगीत कहलाती है । नर मोक' और श्राम' शब्द का प्रयोग, लोक-गीत की परिभाषा के साथ ही श्र'ग्रे जी दाब्द 019 फोक के हिन्दी समानार्थी दाब्द पर विचार करना भी श्रावश्यक है । उक्त दाब्द के लिये हिन्दी में ग्राम, जन श्रौर लोक इन तीनों शब्दों का प्रयोग किया गया है । पं० रामनरेदा न्रिपाठी हिन्दी के लोकगीतों का संकलन करने के क्षेत्र में अग्रणी रहे है । उन्होने श्रग्रजी के 'फोक सांग” दब्द का श्रनुवाद ग्रामगीत ही किया है । त्रिपाठीजी की तरह हिन्दी के श्रन्य विद्वानों ने भी ग्रामगीत दाब्द का प्रयोग कर त्रिपाठीजी का श्रनुकरण किया है। न्रिपाठीजी ने उक्त शब्द का प्रयोग सच १९६२९ के लगभग किया था । 'श्रौर इसके पश्चात्‌ देवेन्द्र सत्यार्थी श्रौर सुधांशु ने प्रामगीत दाब्द को ही श्रपनाया ।* “ग्राम” शब्द को श्रपनाने में जहाँ तक भावुकता प्रदन है उसका प्रयोग करना व्यक्ति-विशेष के श्रपने हष्टिकोण पर निर्भर है, किन्तु वे ज्ञानिक श्रध्ययन एवं भाषा- विज्ञान की हृष्टि से किस्नी भी दाब्द के प्रयोग में उसकी एकरूपता का रहना श्रावस्यक है । ग्रामगीत दाब्द में लोकगीत शब्द की सी व्यापकता का शभ्रभाव है । ग्राम के प्रतिरिक्त ऐसा भी एक विस्तृत समाज है जिसकी श्रपनी धारणाए' है, विश्वास हैं, गीत हैं । भारत की सम्पूर्ण मानवता को ग्राम श्रौर नगर की सीसा में बाँधना उचित नहीं है । क्योंकि साधारण जनता केवल ग्राम तक ही सीमित नहीं है। लोक की सीमा बड़ी व्यापक है, व उसमें ग्राम श्रौर नगर का समन्वय श्रविच्छिन्न है । 'लोक' शब्द ही 'फोक' का सम्यक्‌ पर्यायवाची दाब्द हो सकता है । इस शब्द की व्यापकता एवं प्रामाखिक प्रयोग के श्राधार के लिये पृष्ठभूमि भी है । भरत सु्ति ने लोकधर्मीय परम्पराश्रों एवं रूढ़ियों को श्रपनाने का विशेष श्राप्रह किया है 15 लोक हमारे जीवन का महा-समुद्र है, लोक एवं लोक की धात्री सब भुतमाता पृथ्वी श्रौर लोक का व्यक्त रूप मानव है । *५लोकगीतों में मानव ने भूमि श्रौर जन दोनो की संहति पर ही श्रपनी भावनागों १ कविता-कौमुदी, भाग ५ का उपयोर्धक--ग्रासगीत २ श्र--सत्यार्थों का लेख--हमारे ग्रामगीत, हंस, फरवरी ३६। ब-सुघांधु, जीवन के तत्व श्ौर काव्य के सिद्धान्त; प्रामगीत का ममं- शीर्षक, झ्राठवां श्रष्याय, ( १९४२ ) । ३ लोकवबृत्ताचुकररणं नाट्यमेतन्मया कृतसू....श्रध्याय १,दलोक ११२; (नाट्य शास्त्र) सहापुष्य॑ं प्रशस्तमू लोकानामू नयनोत्सवसू.... ३०६५० ३८1३३ ( वही ) ४ डॉ० चासुदेवदरण झ्रग्रवाल का “लोक का प्रत्यक्ष दर्शन, शीषंक लेख ।




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