जैनधर्म जीवन और जगत | Jain Dharam Jivan Aur Jagat
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
191
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ज्ञान है भमालोक अगम का दे
सब प्रश्नों का समाधान तत्त्व-मीमासा के ठोस घरातल से ही उपलब्ध हो
सकता है ।
भाचार-दर्शन और तत्त्व-मीमासा के पारस्परिक सबध को स्पष्ट करते
हुए ढॉँ० राघाकृष्णन लिखते हैं कि--“कोई भी आचार शास्त्र तत्त्व-दर्शन
पर या चरम-सत्य के एक दार्ध॑निक सिद्धात पर अवश्य आश्रित होता है ।
चरम सत्य के सबध मे हमारी जैसी अवधारणा होती है, उसके अनुरूप ही
हमारा आचरण होता है । दर्शन और आचरण साथ-साथ चलते हैं ।
वास्तव मे जब तक तत्त्व के स्वरूप या जीवन के आदर्श का बोघ
नहीं हो जाता, तब तक आचरण का मूल्याकन भी सभव नहीं । क्योकि यह
मुल्याकन तो व्यवहार या सकल्प के नतिक आदर्श के सदर्भ मे ही किया जा
सकता है । यही एक ऐसा बिंदु है, जहा तत्व-मीमासा और आचार-दर्शन
मिलते हैं । अत दोनो को एक-दूसरे से अलग नही किया जा सकता ।
मानवीय चेतना के तीन पक्ष हैं--
(१) ज्ञानात्मक (२) अनुभूत्यात्मक (३) क्रियात्मक ।
अत दार्शनिक अध्ययन के भी तीन विभाग हो जाते हैं--
(१) तत्त्व-दर्शन (२) धर्मं-दर्शन (३) आचार-दर्शन ।
इन तीनो की विषय-वस्तु भिन्न नही है । मात्र अध्ययन के पक्षो की
भिननता है । जब व्यक्ति किसी ध्येय की पुति के लिए विशिष्ट प्रकार का
प्रयत्न करता है, तब लक्ष्य के स्वरूप, उसकी क्रियाशीलता गौर का्ये-पद्धति
इन सब पक्षो पर समग्रता से विचार किया जाता है । इसलिए थे तीनो जुडे
हुए हैं ।
जीवन के विभिन्न पक्ष होते हुए भी एक सीमा के बाद तत्त्व-दर्शन,
घम्म-द्शन और माचार-दर्शन तीनो एक बिन्दु पर केन्द्रित हो जाते हैं।
क्योंकि जीवन और जगत् एक ऐसी सगति है, जिसमे सभी तथ्य इतने सापेक्ष
हैं कि उन्हें अलग-अलग नही किया जा सकता ।
लगभग सभी भारतीय दर्शनों की यह प्रकृति रही है कि आचार-
शास्त्र को तत्त्व या दर्शन से पृथक् नही करते । जैन, बौद्ध, वेदान्त, गीता
आदि दर्शनों मे कही भी तत्त्व और जीवन-व्यवहार मे विभाजक रेखा नहीं
मिलती ।
जन विचारको ने तत्त्व, दर्शन और आाचार--जीवन के इन तीनों
पक्षो को अलग-अलग देखा अवश्य है, पर इन्हें अलग किया नही । ये सभी
मापस में इतने घुले-मिले हुए हैं कि इन्हें एक दूसरे से अलग करना सभव
भी नही है । बाचार-मीमासा को धघ्मे-मीमासा और तत्त्व-मीमासा से न
अलग किया जा सकता है गौर न उनसे अलग कर उसे समभझा जा सकता
3. ,
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