राख की दुल्हन | Rakh Ki Dulhan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राख की दुलहन गहरे शल्य में विकास पथ भूला सा चारों ओर देखता श्र सोच-सिन्धु में डूबने लगता । “श्र मैं कहाँ जाऊँ ! कया करूँ? मेरा वह सब परिवार त्रब कहाँ है? अन्घधकार, जल श्र बालू के श्रतिरिक्त कुछ भी नहीं ! श्रच्छा होता यदि मैं समुद्र में डूब ही जाता । तो क्या मैं आ्रब समुद्र की इन उत्ताल तरंगों में समा जाऊं? नहीं, तो फिर क्या करूँ ? इस सुनसान में एक चिड़िया का बच्चा तक मेरी सुनने वाला नहीं। चलू, फिर डूब कर प्राण दे दूँ? वह डूब कर प्राण देने को श्रागे बढ़ा । तट तक पहुँचते ही विचार वापिस श्रा गये। प्राणों के मोह ने उसे पीछे धक्का दे दिया। मृत्यु ! कितनी भयंकर है इस झवश्यम्भावीं की कल्पना भी ! विकास फिर सुन्न खड़ा रह गया । पल भर बाद वह वहीं घुटनों में सर देकर इस प्रकार बेठ गया जेसें पेड़ का सूखा हुआ टहना गिर पड़ता है। बह ठिठरे हुए लट्ठे सा सुन्न था । उसने कॉाँपते हुए स्वर में चीख कर कहा-- इंश्वर! या तो तू सुक्ते मरने की शक्ति दे या चलने की | विकास का करुणा भरा स्वर गगन में गज गया । सूर्य की स्वर्णु- रश्मियों ने करुण-ध्वनि सुनी । बालारुण की किरखणें बालके का तन सहलाने लगीं । विकास उठा; उसने किरणों का कर पकड़ा श्र मन्थर गति से चलने लगा । ठिठरा हुआ नंगा बालक चढ़ाई की शोर बढ़ चला । किस्णँ उसका तन तपाती हुई चल रही थीं। मीठी मीठी धूप के सहारे विकास पूव दिशा की श्रोर चढता गया। उसके सर पर आ्राकाश की छाया श्र परों में परिचित लक्ष्य की गति थी। वह हवा का हाथ पकड़े चल रहा था। इस विलच्तणु दुनिया में सुन्न कों भी चलना ही पड़ता दहै। विकास चलता ही रहा । चलता चलता वह. प्रश्न करता, पर सब शुत्य में खो र्




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