भावना - विवेक | Bhavana - Vivek
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
288
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ ७)
अभि, धर अभि कि
बच
श्रायुकमें+ को ३ इस नर्द इस शुणम्थान में ६३ प्रकृतियों की
सत्ता नहीं रहती । मोर इसके फ़लम्वरूप उस जीव के 'नंतज्ञान,
'नंतदर्शन. अनंत सुख श्रीर '्पनंतवीर्य नामक श्रनंतचतुष्रय तथ!
लायिक-सम्ध्रक थ, कायिक-चारित्र, तायिक-ज्ञान, क्ायिक-द्शन,
'यिक-दान. नायिक-लाभ,. क्षायिक-भोग, क्षायिकोपभोग,
चायिक-चीय-- ये नव केवल लड्धियां प्रकट दो जाती हैं । उस
बनते ज्ञानधारी जीव को पृण परमार्मत्य पद प्राप्त हो जाता ईैं ।
यह तेरदवे रुगार्थानवर्ती जीवनसमुक्त संयोग केंवली का संक्तेप में
ग्रूप हि ।
इसके पथ्यानू जब जीव चादहवे शुणरथान में चढ़ता हूं तो
सकें कर्मों के झागमन का द्वार सचथधा बंद हो जाता हूं। तथ।
सत्ता एवं उदयावस्था में प्राप्त क्मों क्री सर्वो्क्ट निजंगा होने से
चद्द कर्मों से सदा के लिये मुक्त होने के सन्मुख रददता टू ।. शील
के श्रठारद हजार भेद बताये गये दि उनका चह स्वामी हो जाता
है। संचर शरीर निज का पूर्ण पात्र चह जीव काय योग से भी
रद्वित हो जाना है राग इसी लिये इसकी श्योग केवली कहते हैं ।
उक्त दोनों शुणस्थानवर्ती जीव अरिदंत कहलाते हैं जिन्हें
'यपरनिःश्रेयस के धारक कहना चाहिये । परनिःश्रेग्स शब्द
सिद्ध पद के लिए कहा जाता हैं । सिद्धयद शुणस्थानीं के चाद की
ग्चरथा हैं जहां पर केबल श्रात्मा ्पने में ही 'रमण करता हैं।
+. नरकायु तिरयंगायु श्र देवायु इन नीन छायुकर्मकी प्रकृतियों
का नाश होता हैं ।
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