धर्मरत्न प्रकरण | Dharamratan Prakaran Bhag - 3

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Dharamratan Prakaran Bhag - 3 by गक्षाधिपति आचार्य - Gakshadhipati Aacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लगा कर पात्र चांघना सो; - उससे मिक्षा । आगम में पात्र घघ के दो किनारे मुद्ठी में पकड़ने के तथा दो कोदनी के पास बांधने के कड़े हूं, तथा आींपग्रद्िक उपकरण रखना जेसे कि-कटाहक, तुम्च का ढकन तथा ढोरे आदि ये सब प्रसिद्ध ही हैं। ये सत्र अभी साघुआं-क आचरित हैं । सिकिगनिक्खिवणाई पट्जोसवर्ण हर तिहिपराबतो | भोयणविदिअनत' एमाई दिविदमल दि (८ ३॥। मूल का अथ--सीकें में पात्र निक्षेप करना आदि; पयू षणा- टिक तिथियां का फेरफार, सोलजन विधि का फेरफार आडि बहुत सी वात (आचरित हूँ ) | दीका का अथे--सीका याने ढोरे की बनाया हुआ .भाजन का आवार ! उससे सिक्ष पण करना, अथात्‌ पान बांधकर रखना: आदि शब्द से युक्तिल्लेप से ( आजकल के'बने हुए लेप से) पात्र रंगना आदि तथा पु परणादि तिथि परावत्तें -वहां पु पणा यासे स'चर्सरी पब॑ और आदि दब्द से चातुमासिक लेना | इंस दो का तिथि परावद्य अथात्‌ तिथि फेर, जो. कि प्रसिद्ध ही है । तथा भोजन विधि का अन्यत्त्र (फेरफार), जो कि यतिजषन में -प्रसिद्ध हो है वदद इत्यादि याने कि-पड़जीवनों अब्ययन सीख जाने पर: भी शिष्य को बढ़ी दीश्ा देना: आदि गीता ने स्वीकृत को हुई अन्य विविध आचरणाएं प्रमाणभूत ही हैं, ऐसा समझना क्योंकि व्यचहदार-भाष्य में कद्दा दे कि-झास्त्र परिंक्ञा के बदले छकाय सं ज़म, पिंडेपणा के बदले उत्तराव्ययन, तथा चुभ्-बपभ गोपनयोधनशोधि और :पुष्करिंगी के टप्टांत दिये. हैं ।




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