रज्जब बानी | Rajjab Bani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(ध्) *रफ्जब बादी' की हस्तत्तिथित प्रतियों का अब सलोप-सा होता जाएरइ है, यह इम सभी कई चके हैं। से १९७१ विक्रमी में यह प्रंप साधु सेवादास बैप इुपाराम थी साधु रामझ्रण जी के उधोय तथा थ्रेज्ाबटी के सेठ सिंवतारायण थी मेमाणी के आधिक सहयोग से बम्बई के ज्ञानसागर प्रेस में मुद्धि श्र प्रकाशित हुआ वा. छिस्तु सम्पादक महोदय की जापामभिशता तथा ररजन थी के काम्प से अपरिचय के कारस यह ग्रंथ भाद्योपास्त कुछ भौर का बौर ही होपया । थम्द बाक्य भौर छंद सभी भ्रष्ट होमये। इस प्रप के क्पय माप की सुत्दर टीका (विधेषत धग्वार्प ) स्वामी रामदास णो दूबस घनियाँ बालों ते की थी थो प्रंष के साप दी गई थी ! *रस्जब आती के रचताकास के सम्दल्थ मैं उक्त मुद्रित “रस्जब बाती' के सम्पादक ने अपनी यूमिका माग में लिखा है- इस सतोहूर प्रंब की रचता संबत्‌ १६२५ मि. से संबत्‌ ६४ थि. के भीतर हुई है।” इस छे हुए प्रंय के साथ घापेलाने स्पबस्पापकों एवं सम्पादकों का खिलगाड़ देखगर सचमुच बड़ा क्सेघ होता है । छपाई आर सम्पाइन में तो प्रमाव किया ही गया है. रग्जब थी के सम्बत्थ में निराधार मत मी प्रस्तुत छिये पए हैं । उदाहरण के सिए वाची' का रणनाकाद से एस से से. १९५ के दोष का तदाया यया है ! प्रयारणों के वाधार पर पहु सिद्ध होचुका है कि रस्जब थी सन (५६७ ( से १६२४ णि. ) मैं उत्पप हुए थे । यदि आती का रघताफाल से १६२५ से १६३ के बीच मान लिया छाप णो इसका भरे बहू होगा कि जब रण्डड जी एक भ्ए की शामु के ये तमी “बाती' की रचगा में प्रबूत्त हो गए थे । रघतकाल-सम्बल्वी यह सत सबंधा असंमठ तथा निराबार है। इस सम्बर्थ में पुरोहित हर्तिरापत्र धर्मा का मठ ही मास्य है। उसहति 'राजस्वान पत्रिका कलकत्ता में प्रकाशित भपने महात्मा रण्जव थी सोपेक भेख म॑ सिखा है-- 'रसरजब जी से १६४४ में या उठके आस पाप ही बादूदणाम के शिप्य मामेर में हुए बे यौर स॑ ७४६ में रामसरल (स्वदिसी) होगए। इस कारथ इसका रचजाएं प॑. १६४५ से समाकर से. १७४. ठक होती रही होगी परसु मपिकाद रचनाएं इनकी से १७२५ तक हुई होंगी अब तक इसकी इलियों यस्किचित काम करती रही होगी ।” इसी प्रसंग में पुरोइिति जी भागे कहठे हैं -“अपने मु के परमषाम बमम पर इस्होंनि छ सिधे हैं, जिनफा से १६६ में लिखा शाता सिउ है । परीवदास जी के में के सरगये इसके मी कई बर्प पीछे के हैं, शापव स॑ १६९५ आर १६७ के थीच के हों । हमारे पाद्र इसको बागी के कई अस से ७४१ और १७४२ तवां फपे के लिये मौजूद हैं । इसीये हम बहते हैं स॑ १७४ इनकी रचना का अन्तिम समय समतता चाहिए ।” पुरोदिति थी का यह मत प्रमाच-पुप्ट है । मुदित प्रंप की भूमिका का रचताछाल-तम्दरपी सठ ज्ामक एवं अप्रामाभिक है। रयजब थी के संस्कत का दिन होने बाली बारणा थी कौरी अाल्ति है। यह टीक है कि रउजब थी बहुमत थे सत्मंदी थे बिद्राों का साइचर्प डर प्रात हुआ था. विस्तु स्वय मस्त के थिद्ानू थे--पह बात किसी मौ प्रकार तर्कनुमोरित तहीं है । रज्जब जी का दूसरा एंव 'सर्वधी है, जिसे हम उसकी सकसस-इति सात खकते हैं । इस प्रंष में १४२ बंप हैं । मंगों के शोपंफ “ररजब बानी' की भाठि ही हैं। दिऐपता यह है कि एक एक जग (विपय) पर धनी बानी दे साथ साथ कई सहात्मार्मों बी उत्तियाँ रयजय जी ने मगुष्यूद थी हैं । दाजू, बजीर, इप्सदाय हरदास सिद (6म्मदउ यही सवारी हरिदास निएजनी हैं) बामदेव महपूर जनबोपाल परमामस्थ पुरदस सहसद थतता मुवुम्द सागक शोरस आाजित्द




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