मैथलीशरण गुप्त | Maithilishran Gupt

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
514
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चप्ण
श्रिविघ दुखो से सतस प्राणियों का दुख किस प्रकार दूर हो यही मेरी कामना है ।”
महायान बौद्ध घर्म के शब्दों मे, मानव के लिये जीवन की प्रेरणा का जो स्रोत है वह एकमात्र
करुणा भावना से मानव की समस्याओं का समाधान करना है । जीवन की प्रेरणा देने वाला
जो सत्य मनुष्य के लिये है उसका प्रयोजन न राज्य है, न स्वर्ग है, न इन्द्रपद या चक्रवर्ती
राजाझओ का पद है । उसका एकमात्र उद्देश्य यही है कि मानव को सानवोचित उत्तम प्रज्ञा
प्राप्त हो और मन की उस स्वच्छ वृत्ति से वह उन्हे जो इन्द्रियो मे झासकत हैं, ्रात्मनिगम्रह के
लिये प्रेरित कर सके, जिन्हें कोई घैयं देने वाला नही है उन्हें श्राइवस्त कर सके, जो वद्ध हैं,
उन्हें बन्घन-मुक्त कर सके श्रौर जिनका चित्त शान्त नही है उन्हे सुखी कर सके ?*
देवी रूपवत्ती की पृष्ठभूमि मे जो करुखा की भावना थी वह किसी सम्प्रदाय विशेष
की सम्पत्ति न थी वह तो मानव की शाइवत सनातनी भावभूमि है जिसका देश श्रौर काल
मे अन्त नहीं है। युधिष्टिर उसी सनातन मानव के प्रतिनिधि हैं । जय भारत' में इसी
शाइवत भ्रादर्श की विजय कवि को इ्ट है। मनुष्य की जो साघना है वह श्रघिक से शभ्रधिक
सानवता का कौन-सा स्तर प्रात कर सकती है, युषिष्टिर मे उसी का हृष्टान्त है । कवि के
भ्नुसार स्वर्ग मे भी वैसा देवपुष्प दुलंंभ है, जैसा युधिप्ठिर के रूप मे इस पृथिवी पर खिल
सकता है । स्वयं कृप्पण द्रौपदी से कहते हैं--
निज साघना से श्रघिक नरकुल को युधिष्ठिर से मिला ।
कया स्वर्ग से भी सुलभ यह जो सुमन घरती पर खिला ?
गुप्त जी के मानवीय श्रादर्श का यह श्राघा ही चित्र है । उसका दूसरा झ्राधा भाग
गृहस्थ की महिमा का प्रतिपादन एव प्रवृत्ति मार्ग की श्रावश्यकता का श्राग्रह है । मानव
झपने कल्याण का चतुमु जी स्वस्तिक वनाना चाहता है। सर्वेप्रयम श्रपने निजी केन्द्र मे,
दूसरे उस परिवार मे जिसकी परिधि मे उसका जीवन विकसित होता है, तीसरे उस समाज
या राष्ट्र के जीवन मे जिसका वह अ्रग है, श्रौर चोथे उस विश्वमानव के लिये जिसके साथ
उसका नि.सीम सम्बन्ध है वह स्वथा कल्याण की भावना एव सर्वविध स्वस्तिक का निर्माण
करता है । मानवीय विकास के चारो रूप गुप्त जी की काव्य भावना का अभिन्न श्रग है।
इस सामग्री का वहुविघ श्रव्ययन सम्भव है । श्रर्वाचीन युग के लिये भारतीय संस्कृति की नई
व्याख्या गुप्त जी के काव्य की महती विशेषता है ।
प्रस्तुत ग्रन्य के लेखक डा० उमाकान्त ने काव्य के चहिरग विघान भर उसकी
श्रंतरग श्रथंवती झात्मा, इन दोनो दृष्टियों से गुप्त जी के वादूमय का बहुत ही इलाघनीय
श्रघ्ययन यहाँ प्रस्तुत किया है । समवत श्रर्वाचीन कवियों मे झ्रन्य किसी पर इस प्रकार का
१. येन सत्येन मया दारकस्यार्थाय उभी स्तनी परित्यक्ती, न राज्यार्थ, न सोगार्थ, न
दाक्ायं, न राज्ञां चक्रवर्तोनां विषयायें, नान्यत्र श्रहं श्रदु्तरां संदोधि झभिसंददघ्य,
झदान्तानदयेयम् ; श्रमुक्तान् सोचयेयम् , श्रनाइवस्तान् श्राइवासयेयम् , घ्परिनिव तानू
परिनिर्वापयेयम् । ( दिव्यावदान; रूपवती झवदान, ० ४७३ ) । पद
User Reviews
No Reviews | Add Yours...