भारतीय संस्क्रति में जैन धर्म का योगदान | Bhartiya Sanskriti Me Jain Dharm Ka Yogdan (1962) Ac 5386
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
501
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ऊदार नीति का सैद्धान्तिक भ्ाधमर ' । कि
है। रावण की दशमुखी राक्षस न मान कर उसे विद्याघर बंझी माना है, जिसके स्वाभाविक
एक मुख के अतिरिक्त गले के हार के नौ मशियों मे मुख का प्रतिबिम्ब पड़ने से लोग उसे
दशानन भी कहते थे । भ्रस्निपरीक्षा हो जाने पर भी जिस सीता के सपतीस्व के संबंध में
लोग निःशंक नहीं हो सके, उस प्रसंग को जैन रामायण में बड़ी चतुराई से निबाहा गया
है । सीता किसीप्रकार भी रावण से प्रेम करने के लिये राजी नहीं है । इस कारण
रावण के दूख को दूर करने के लिये उसे यह सलाह दी जाती है कि बह सीता के
साथ बलात्कार करे । कितु रावण इसके लिये कदापि तैयार नही होता । वह कहता
है कि मैने ब्रत लिया है कि किसी स्त्री को राजी किये बिना मैं कभी उसे भ्रपने भोग
का साधन नहीं बनाऊंगा । इसप्रकार जैन पुराणों में रावण को राक्षसी वृत्ति से ऊपर
उठाया गया है, श्रौर साथ ही सीता के श्रक्षुण्ण सतीत्व का ऐसा प्रमारा उपस्थित कर
दिया गया है, जो शंका से परे श्रौर श्रकाट्य हो । इन पुराणों में हनुमान, सुग्रीव झादि
को बदर नही, कितु विद्याधर वशी राजा माना गया है, जिनका ध्वज चिन्ह बोनर
था । इसप्रकार जैनपुराणो मे जो कथाश्रों का वैश्षिष्ट्य पाया जाता है, वह निरर्षक
अथवा धार्मिक पक्षपात की संकुचित भावना से प्रेरित नहीं है। उसका एक महान
प्रयोजन यह है कि उसके द्वारा लोक में श्रौचित्य की हानि न हो, भौर साथ ही श्रायें
भ्रनाय॑ किसी भी वर्ग की जनता को उससे किसी प्रकार की ठेस न पहुंचकर उनकी
भावनाओं की भले प्रकार रक्षा हो ।
देश में कभी यक्षों श्र नागों की भी पूजा होती थी, श्रौर इसके लिये उनकी
मूर्तिया व मन्दिर भी बनाये जाते थे । प्राचीन प्रंथो मे इस बात के प्रमाण हैं । इनके
उपासको को इतिहास वेत्ता मूलतः: श्रनायं मानते है। जैनियों ने उनकी हिंसात्मक
पूजा-विधियों का तो निषेध किया, किन्तु प्रमुख यक्ष नागादि देवी देवताओं को अपने
तीथेंकरों के रक्षक रूप से स्वीकार कर, उन्हे झपने देवालयों में भी स्थान दिया है ।
राक्षस, भूत, पिशाच भ्रादि चाहे सनुष्य रहे हों, श्रथवा और किसी प्रकार के प्रार्णी,
किन्तु देश के किन्ही वर्गों मे इनकी कुछ न कुछ मान्यता थी, जिसका शझ्रादर करते
हुए जैनियो ने इन्हे एक जाति के देव स्वीकार किया है।
उदार नीति का सेद्धान्तिक भ्राघार--
जैनियो की उक्त संग्राहक प्रवत्तियों पर से सम्भवत: यह कहा जा सकता है कि
जैनधर्म भ्रवसरवादी रहा है, जिसके कारण उसमें भ्रनेक विरोधी बातों का समावेक्ष
कर लिया गया है। किन्तु गम्भीर विचार करने से यह अ्युमान निर्भूल सिद्ध हो
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