इतिहास और आलोचना | Itihas Aur Aalochana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इतिहाप ्ोर आलोचना चढ़े से चड़ा रूपवादी भी श्रपनी वकालत के लिए ही सद्दी, विपयवस्तु श्रोर सामाजिक शवश्यक्ता' का सददारा लेने के लिए, बाध्य है, तो इसका साफ मतलब है कि रुपविधान की द्पेक्षा विपयवस्तु का मदत्व श्रधिक है । इसलिए प्रगति- शील समीक्षक साहित्य में विपयवस्तु की चर्चा अधिक करते हैं शोर उस पर ज़ोर भी श्रधिक देते हूं । हमारे साहित्य की मदन परम्परा भी यही रही है । गो० तुलसीदास ने भी विपयवस्तु की महत्ता पर ही श्रधिरू बल दिया है- रा भगिति विचित्र सुकवि कूत जेऊ । राम नाम विनु सो न सोऊ ॥ सिंधु मति सीप समाना | स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥ लो धरपद वर. बारि विचारू। दहोहिं कवरित सुकुतामनि चारू ॥ यहाँ हृदय, मति श्रीर विचार. का यह सघटन सोदश्य श्लौर साकान टै-यों ही रूपक-निर्वाटमात्र नहीं है । “सरल कोरति र्मिल” का द्ादश र्ग्वने वाले मद्दाकचि ने स्पष्ट शब्दों से कद्दा है कि “सो न होई बिनु चिमल मत्ति ।”? फदने के लिए चात चढ़ी चाहिए, ढंग तो उसके झावेग से स्वयं लिपटा है | भक्त कवियों के पाल यददी विशेष दात थी, डिसने बिहारी श्रादि कुशल शब्द-शिलपी कवियों से उन्हें ऊपर उठा दिया । भक्त कवियों को “लोक संग्रदद? की चिन्ता अधिक थी, वे कलि-दग्ध प्राणियों के उद्धार के लिए श्याकुल थे; उनकी कविता का श्ादशे था, “छुग्तरि सम सब कहूँ हित दोई |” इसके दिप- रीत रोतिवादी कि दिन-रात काव्य-शात्त्र के नियमों दौर लक्षणों की चिन्ता में लीन थे, उन्हें ऊँचि श्राद्श की परवा कहां ? समाव के दुख दर्द की शोर उनकी दृष्टि क्यो जाती १ परिणाम सामने है । काव्य के रुपविधान वी चर्चो से फरते हुए भी, मक्त फवियों ने ऊँची काव्य-किया वा उदाइरण रखा और रीतिवाढी कवि दिन-रात उसकी साधना करने पर भी दायते रहे । म्रयोग-प्रिय पचियों को अपने इतिहास से सीख लेना चाहिए । यदद श्रम्यान ब्हुत-उच वैसा दी है, से कोई स्वन्थ शोने के लिए घी-दूध-फल श्रादि पीछ्टिक पदार्यो का फट.




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